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________________ अ० २१ / प्र०१ हरिवंशपुराण / ६९५ ७. हरिवंशपुराण में गुणस्थानक्रम से कर्मक्षय का वर्णन किया गया है, जिसके अनुसार चौदहवें गुणस्थान के अन्त में अवशिष्ट अघातीकर्मों का क्षय होने पर ही सिद्धत्व की प्राप्ति होती है। (५६/८४-११०)। यह सिद्धान्त यापनीयमत के विरुद्ध है, क्योंकि यापनीयमत में अन्यलिंगियों और गृहस्थों की मुक्ति मान्य होने से 'मिथ्यादृष्टि' और 'संयतासंयत' गुणस्थानों में भी सम्पूर्ण कर्मक्षय स्वीकार किया गया है। ८. यापनीयमत में स्त्रीवेद, पुरुषवेद तथा नपुंसकवेद, इन तीन भाववेदों के स्थान में एक ही भाववेद-सामान्य स्वीकार किया गया है। इसका निरूपण षट्खंडागम के अध्याय में विस्तार से किया जा चुका है। किन्तु हरिवंशपुराण में तीनों भाववेदों की सत्ता मान्य की गई है। यथा भावांस्त्रैणान्यतो याति स स्त्रीवेदोऽतिगर्हितः। पुन्नपुंसकवेदौ स्तः पौंस्नान्नापुंसकाद् यतः॥ ५८/२३७॥ यह यापनीयमत के विरुद्ध है। ९. यापनीयमान्य श्वेताम्बरसाहित्य में अन्तरद्वीपों की संख्या ५६ मानी गयी है और दिगम्बरग्रन्थों में ९६।१९ हरिवंशपुराण (५/४७६, ४८१, ५७५) में भी ९६ अन्तरद्वीपों का ही उल्लेख है। यह भी हरिवंशपुराण की यापनीयमत से सैद्धान्तिक भिन्नता है। १०. हरिवंशपुराण (९/१८४-१८९) में भगवान् ऋषभदेव के लिए राजा श्रेयांस द्वारा जिस विधि से आहारदान किये जाने का वर्णन है, वह दिगम्बरमत के अनुरूप है।° इस विधि से आहारदान और आहारग्रहण का वर्णन किसी भी यापनीयग्रन्थ में उपलब्ध नहीं है। दिगम्बर-गुरुपरम्परा से सम्बद्ध हरिवंशपुराणकार जिनसेन ने अपने को दिगम्बरगुरु-परम्परा से सम्बद्ध बतलाया है। वे लिखते हैं-"भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद बासठ वर्षों में क्रम से गौतम, सुधर्म और जम्बूस्वामी ये तीन केवली हुए। उनके बाद सौ वर्षों में समस्त पूर्वो को जाननेवाले पाँच श्रुतकेवली हुए : नन्दी, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु। तदनन्तर एक सौ तेरासी वर्षों में ग्यारह मुनि दशपूर्वो के धारक हुए : विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिलाभ, गङ्गदेव और धर्मसेन। उसके बाद दो सौ बीस वर्षों में पाँच मुनि ग्यारह अंगों के धारी हुए : नक्षत्र, यशःपाल, पाण्डु, १९. देखिए , प्रस्तुत ग्रन्थ का 'तिलोयपण्णत्ती' नामक सप्तदश अध्याय/ प्रकरण १/पादटिप्पणी १४। २०. तुलना कीजिए, मूलाचार / पूर्वार्ध । आचारवृत्ति / गा. ४८२-४८३। For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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