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________________ ६९६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०२१ / प्र०१ ध्रुवसेन और कंसाचार्य। तत्पश्चात् एक सौ अठारह वर्षों में सुभद्रगुरु, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य (लोहार्य), ये चार मुनि प्रसिद्ध आचारांग के धारी हुए।" (६६/ २२-२४, १/६०-६५)। "इनके बाद महातपस्वी विनयन्धर, गुप्तऋषि, गुप्तश्रुति, शिवगुप्त, अर्हबलि, मन्दरार्य, मित्रवीरवि, बलदेव, मित्रक, सिंहबल, वीरवित्, पद्मसेन, व्याघ्रहस्त, नागहस्ती, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपसेन, श्रीधरसेन, सुधर्मसेन, सिंहसेन, सुनन्दिषेण, ईश्वरसेन, सुनन्दिषेण, अभयसेन, सिद्धसेन, भीमसेन, जिनसेन और शान्तिसेन आचार्य हुए। तदनन्तर षट्खण्डागम के ज्ञाता जयसेन नामक गुरु हुए। उनके शिष्य अमितसेन गुरु हुए। इन्हीं अमितसेन के अग्रज धर्मबन्धु कीर्तिषेण नामक मुनि थे। उनका प्रथम शिष्य मैं जिनसेन हुआ, जिसने हरिवंशपुराण की रचना की है।" (६६/२५-३३)। ___ इस प्रकार आचार्य जिनसेन ने अपने को दिगम्बर-गुरुपरम्परा से सम्बद्ध बतलाया है। यह गुरुपरम्परा न तो श्वेताम्बरों में मिलती है, न यापनीयों में। गौतमस्वामी से लेकर लोहार्य तक की उपर्युक्त आचार्यपरम्परा इन्द्रनन्दी, विबुधश्रीधर आदि के 'श्रुतावतार' आदि ग्रन्थों में मिलती है, जो दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थ हैं। इससे स्पष्ट है कि हरिवंशपुराणकार आचार्य जिनसेन दिगम्बर थे। दिगम्बर-ग्रन्थकारों का गुणकीर्तन हरिवंशपुराणकार ने ग्रन्थ के आरंभ में जितने भी पूर्ववर्ती ग्रन्थकारों का गुणकीर्तन किया है, वे सब दिगम्बर हैं, जैसे आचार्य समन्तभद्र, सिद्धसेन (सन्मतिसूत्र के कर्ता), देवनन्दी (पूज्यपादस्वामी), वज्रसूरि (पूज्यपाद स्वामी के शिष्य वज्रनन्दी), महासेन, रविषेण (पद्मपुराणकार) जटासिंहनन्दी (वरांगचरित के कर्ता), शान्तिषेण, विशेषवादी, कुमारसेन, प्रभाचन्द्र, वीरसेन स्वामी (धवलाकार), जिनसेन (पार्वाभ्युदयकार) तथा वर्धमानपुराण के कर्ता। (१/२९-४२)। इससे भी हरिवंशपुराणकार का दिगम्बर होना सिद्ध होता है। दिगम्बरग्रन्थों का अनुकरण आचार्य जिनसेन ने हरिवंशपुराण की विषयवस्तु दिगम्बराचार्य-रचित ग्रन्थों से अनुकृत की है। यथा १. श्वेताम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में "नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः" (१/३४), ये पाँच नय माने गये हैं, जब कि दिगम्बरमान्य तत्त्वार्थसूत्र में "नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसू Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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