SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [चौंतीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ प्रस्तुत अध्याय में इन दोनों मतों को निम्नलिखित प्रमाणों के आधार पर कपोलकल्पित सिद्ध किया गया है १. विशेषावश्यकभाष्य में वर्णित बोटिकमतोत्पत्ति कथा से सिद्ध है कि बोटिक शिवभूति यापनीयसंघ का प्रवर्तक नहीं था, अपितु उसने श्वेताम्बरमत छोड़कर परम्परागत दिगम्बरमत का वरण किया था, अतः उसकी परम्परा में दीक्षित कोई भी व्यक्ति यापनीय नहीं हो सकता था। शिवभूति के दिगम्बर होने पर भी कुन्दकुन्द उसके शिष्य या प्रशिष्य नहीं हो सकते थे, क्योंकि कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी (ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध और ईसोत्तर पथम शताब्दी के पूर्वार्ध) में हुए थे। (देखिये, अध्याय १०) और बोटिक शिवभूति ने ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के अन्तिम चरण (वीर निर्वाण सं० ६०९ = ई० सन् ८२) में दिगम्बरमत स्वीकार किया था। २. कुन्दकुन्द के प्रथमतः यापनीय होने का उल्लेख न तो कुन्दकुन्द ने स्वयं अपने किसी ग्रन्थ में किया है, न किसी अन्य ग्रन्थ या शिलालेख में मिलता है। ____३. आचार्य कुन्दकुन्द ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में हुए थे और यापनीयसंघ की उत्पत्ति ईसा की पाँचवीं शताब्दी के प्रारंभ में हुई थी। (देखिये, अध्याय ७)। इससे भी कुन्दकुन्द का यापनीयसंघ में दीक्षित होना असंभव था। ४. इसी प्रकार भगवान् महावीर द्वारा अनुपदिष्ट सवस्त्र-साधुलिंग को धारणकरनेवाले भट्टारक सम्प्रदाय का उदय ईसा की १२वीं शताब्दी में हुआ था, अतः ग्यारह सौ वर्ष पूर्व हुए आचार्य कुन्दकुन्द का. भट्टारकसम्प्रदाय में भी दीक्षित होना नामुमकिन है। ५. १२वीं शताब्दी के पूर्व जिन दिगम्बरजैन साधुओं ने मन्दिरों और मठों में नियतवास आरंभ कर दिया था और भूमि-ग्रामादि का दान ग्रहण करने लगे थे, उनका सम्प्रदाय पासत्थादि-मुनिसम्प्रदाय कहलाता था, भट्टारक-सम्प्रदाय नहीं। पासत्थादिमुनिसम्प्रदाय और भट्टारकसम्प्रदाय में मौलिक भेद यह था कि पहले ने मुनि अवस्था में रहते हुए गृहस्थकर्म अपना लिया था और दूसरे ने गृहस्थावस्था में रहते हुए मुनिकर्म (धर्मगुरु का पद) हथिया लिया था। इस प्रकारक कुन्दकुन्द के समय में पासत्थादिमुनियों के सम्प्रदाय का अस्तित्व था, भट्टारकसम्प्रदाय का नहीं। अतः कुन्दकुन्द का भट्टारकसम्प्रदाय में भी दीक्षित होना असंभव था। ___ यह सुनिश्चित करने के लिए कि भट्टारकसम्प्रदाय का उदय ईसा की १२वीं शती में ही हुआ था, उसके पूर्व नहीं, प्रस्तुत अध्याय में भट्टारकों के असाधारणधर्मों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy