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________________ तीनों खण्डों की विषयवस्तु का परिचय [पैंतीस] का विस्तार से वर्णन किया गया है और उन धर्मों का विकास १२वीं शती में ही हुआ था, इसे सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण प्रस्तुत किये गये हैं। ___ इसी प्रकार इस तथ्य पर भी प्रकाश डाला गया है कि मन्दिर-मठों में नियतवास करनेवाले और राजाओं से ग्राम-भूमि आदि का दान लेकर गृहस्थों जैसा जीवन व्यतीत करनेवाले दिगम्बर जैन मुनियों के लिए 'भट्टारक' संज्ञा का प्रयोग किसी भी प्राचीन ग्रन्थ में नहीं मिलता उन्हें सर्वत्र पासत्थ (पार्श्वस्थ), कुसील (कुशील), संसत्त (संसक्त) और ओसण्ण (अवसन्न), इन विशेषणों से युक्त 'मुनि' शब्द से ही अभिहित किया गया है। निष्कर्ष यह कि आचार्य कुन्दकुन्द, न तो कभी यापनीयसम्प्रदाय में दीक्षित हुए थे, न भट्टारकसम्प्रदाय में, अतः मुनि कल्याणविजय जी और आचार्य हस्तीमल जी ने कुन्दकुन्द के द्वारा अपने दीक्षागुरु के नाम का उल्लेख न किये जाने के जो कारण बतलाये हैं, वे सर्वथा मिथ्या हैं। __ श्वेताम्बराचार्य हस्तीमल जी ने सुप्रसिद्ध दिगम्बरग्रन्थ गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती को भी यापनीयसम्प्रदाय का आचार्य बतलाया है। इसका भी सप्रमाण खण्डन प्रस्तुत अध्याय का एक प्रासंगिक विषय है। नवम अध्याय-प्रस्तुत अध्याय में इस प्रश्न का समाधान किया गया है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने स्वरचित ग्रन्थों में अपने दीक्षागुरु के नाम का उल्लेख क्यों नहीं किया? वह समाधान यह है कि प्राचीनकाल में प्रायः ग्रन्थकारों के द्वारा अपने ग्रन्थों में स्वयं के तथा स्वगुरु के नाम का उल्लेख करने की परम्परा नहीं थी। षट्खण्डागम के कर्ता पुष्पदन्त और भूतबलि, कसायपाहुड के कर्ता गुणधर, तत्त्वार्थसूत्रकार गृध्रपिच्छ, आचार्य समन्तभद्र, पूज्यपादस्वामी आदि दिगम्बराचार्यों ने भी अपने ग्रन्थों में स्वनाम एवं स्वगुरु के नाम का उल्लेख नहीं किया। इसी प्रकार पाणिनि ने अष्टाध्यायी में, पतञ्जलि ने योगदर्शन में और वाल्मीकि ने रामायण में अपने गुरु के नाम का निर्देश नहीं किया। दशम अध्याय-आचार्य कुन्दकुन्द के समय के विषय में अनेक विप्रतिपत्तियाँ हैं। डॉ० के० बी० पाठक, मुनि कल्याणविजय जी, पं० दलसुख मालणिया, डॉ० आर० के० चन्द्र एवं डॉ० सागरमल जी ने कुन्दकुन्द का अस्तित्वकाल विक्रम की छठी शती (५वीं शती ई० का उत्तरार्ध) माना है। प्रो० एम० ए० ढाकी ने तो कुन्दकुन्द को आठवीं शती ई० में ढकेलने का प्रयत्न किया है। श्वेताम्बराचार्य हस्तीमल जी ने उन्हें पहले ई० सन् ४७३ में उत्पन्न बतलाया, बाद में उनका उत्पत्तिकाल ई० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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