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________________ [छत्तीस] जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ सन् ७१३ मान लिया। प्रो० हीरालाल जी जैन ने कुन्दकुन्द का समय ईसा की द्वितीय शताब्दी बतलाया है, जब कि ब्र० भूरामल जी (आचार्य श्री ज्ञानसागर जी) ने उन्हें श्रुतकेवली भद्रबाहु का तथा पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने भद्रबाहु-द्वितीय का साक्षात् शिष्य मानकर उनका समकालीन माना है। ये सभी मत असमीचीन हैं। ई० सन् १८८५ में राजपूताना की यात्रा के समय श्री सेसिल बेण्डल (Mr. Cecil Bendall) को जयपुर के पण्डित श्री चिमनलाल जी ने मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, नन्दी-आम्नाय और बलात्कारगण की दो पावलियाँ प्रदान की थीं। श्री बेण्डल ने वे प्रो० (डॉ०) ए० एफ० रूडाल्फ हॉर्नले (Rudolf Hoernle) को सौंप दीं। प्रो० हार्नले ने उन पट्टावलियों का समस्त विवरण अँगरेजी में एक तालिका में निबद्ध किया और उसे तत्कालीन शोधपत्रिका 'The Indian Antiquary, Vol. Xx, october 1891' में प्रकाशित कराया। इस (इण्डियन ऐण्टिक्वेटी में प्रकाशित) तालिकाबद्ध पट्टावली में बतलाया गया है कि कुन्दकुन्द का जन्म ईसा से ५२ वर्ष पूर्व हुआ था और ईसा से ८ वर्ष पहले ४४ वर्ष की आयु में वे आचार्यपद पर प्रतिष्ठित हुए थे तथा ५१ वर्ष, १० मास एवं १० दिन तक आचार्यपद पर आसीन रहे। उसके ५ दिन बाद स्वर्ग सिधार गये। इस प्रकार उनका जीवनकाल ९५ वर्ष, १० मास और १५ दिन था। आचार्य कुन्दकुन्द के इस समय की पुष्टि साहित्यिक और शिलालेखीय प्रमाणों से होती है। दशम अध्याय में इन्हीं प्रमाणों को प्रस्तुत कर आचार्य कुन्दकुन्द का अस्तित्वकाल ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी (ईसापूर्व प्रथम शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर ईसोत्तर प्रथम शताब्दी के पूर्वार्ध तक) निर्धारित किया गया है और उपर्युक्त विद्वानों द्वारा प्रस्तुत समस्त विरोधी मतों को उनके आधारभूत हेत्वाभासों का युक्ति-प्रमाणपूर्वक विस्तार से निरसन करते हुए निरस्त किया गया है। श्वेताम्बर विद्वान् पं० दलसुख मालवणिया ने कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में वर्णित जैनदर्शन के स्वरूप को तत्त्वार्थसूत्र (उनके अनुसार तीसरी-चौथी शताब्दी ई०) में वर्णित जैनदर्शन के स्वरूप की अपेक्षा विकसित मानकर कुन्दकुन्द को उमास्वाति से परवर्ती (पाँचवीं शती ई०) सिद्ध करने का प्रयास किया है। इसी प्रकार डॉ० सागरमल जी ने गुणस्थानसिद्धान्त और नय-प्रमाण-सप्तभंगी को जिनोपदिष्ट न मानकर छद्मस्थ आचार्यों द्वारा विकसित बतलाया है और कहा है कि तत्त्वार्थसूत्र में ये दोनों सिद्धान्त उपलब्ध नहीं होते, जब कि कुन्दकुन्दसाहित्य में उपलब्ध होते हैं, अतः कुन्दकुन्द उमास्वाति से उत्तरवर्ती (५वीं शती ई० के) हैं। दशम अध्याय में इन तीनों विकासवादों को अखण्ड्य प्रमाणों द्वारा मिथ्या सिद्ध किया गया है, जिससे कुन्दकुन्द के अस्तित्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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