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________________ तीनों खण्डों की विषयवस्तु का परिचय [सैंतीस] को ईसा की पाँचवीं शताब्दी में सिद्ध करने का प्रयत्न धराशायी हो जाता है और उनके ईसापूर्वोत्तर प्रथम शताब्दी में विद्यमान होने का तथ्य अक्षुण्ण रहता है। एकादश अध्याय-षट्खण्डागम को केवल श्वेताम्बर विद्वान् डॉ० सागरमल जी ने यापनीयग्रन्थ माना है। उनका प्रमुख तर्क यह है कि उसके प्रथम खण्ड 'सत्प्ररूपणा' (पुस्तक १) के ९३ वें सूत्र में मणुसिणी (मनुष्यस्त्री) में संयत-गणुस्थान बतलाये गये हैं। 'मणुसिणी' शब्द का अर्थ केवल द्रव्यस्त्री है, उसे जो भावस्त्री का भी वाचक माना गया है, वह गलत है। इससे सिद्ध है यह ग्रन्थ स्त्रीमुक्तिसमर्थक यापनीयसम्प्रदाय का है। इसे स्त्रीमुक्ति-समर्थक श्वेताम्बरसम्प्रदाय का इसलिए नहीं माना जा सकता कि यह शौरसेनी प्राकृत में है। श्वेताम्बरसम्प्रदाय के सभी प्राकृतग्रन्थ अर्धमागधी में रचे गये हैं। एकादश अध्याय में इस तर्क का निरसन करने के लिए अनेक युक्तिप्रमाणों से सिद्ध किया गया है कि जो द्रव्य (शरीर) से स्त्री है, उसे तो षट्खण्डागम में 'मणुसिणी' कहा ही गया है, किन्तु जो द्रव्य से स्त्री नहीं हैं, अपितु पुरुष है, तथापि स्त्रीवेदनोकषाय के उदय से स्त्रीत्वभाव से युक्त है, उसे भी ‘मणुसिणी' शब्द से अभिहित किया गया है। यह भी दर्शाया गया है कि ऐसे मनुष्यों के लिए सर्वार्थसिद्धि (१/ ७/२६/पृ.१७), तत्त्वार्थराजवार्तिक (९/७/११/पृ.६०५) आदि अन्य दिगम्बरजैन ग्रन्थों में भी 'मानुषी' शब्द प्रयुक्त हुआ है तथा इस प्रकार के मनुष्य, लोक में भी मिलते हैं। षट्खण्डागम के उपर्युक्त सूत्र में ऐसे ही स्त्रीत्वभाव से युक्त पुरुषशरीरधारी मनुष्यों को 'मणुसिणी' शब्द से अभिहित करते हुए उनमें संयतगुणस्थानों का कथन किया गया है। अतः षट्खण्डागम स्त्रीमुक्ति-प्रतिपादक ग्रन्थ नहीं है। किसी मनुष्य का स्त्रीवेदनोकषाय-नामक कर्म के उदय से भाव से स्त्री होना और पुरुषांगोपांग-नामकर्म के उदय से द्रव्य (शरीर) से पुरुष होना वेदवैषम्य कहलाता है। कर्मभूमि के किसी-किसी गर्भज संज्ञी-असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच एवं मनुष्य मे ऐसा वेदवैषम्य होता है, यह दिगम्बरजैन-कर्मसिद्धान्त का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। इस वेदवैषम्य के कारण लोक में दो प्रकार के पुरुष मिल सकते हैं-एक वह, जो मन (भाव) और शरीर (द्रव्य) दोनों से पुरुष हो और दूसरा वह, जो मन से स्त्री हो, लेकिन शरीर से पुरुष। इन दोनों ही प्रकार के पुरुषों का मोक्षसंभव है। किन्तु जो मनुष्य, भाव से पुरुष हो, परन्तु द्रव्य से स्त्री, उसका मोक्ष संभव नहीं है। ___ इस वेदवैषम्य को यापनीय-आचार्य पाल्यकीर्ति शाकटायन (९वीं शताब्दी ई०) और बीसवीं शती ई० के दिगम्बरजैन विद्वान् प्रो० (डॉ०) हीरालाल जी जैन ने अमान्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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