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________________ अष्टम प्रकरण उत्तरभारतीय- सचेलाचेल-निर्ग्रन्थसंघ के पक्षधर हेतुओं की असत्यता पूर्वोल्लिखित विद्वान् ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन सम्प्रदायभेद की पूर्ववर्ती उत्तरभारतीय - सचेलाचेल - निर्ग्रन्थ- परम्परा में उत्पन्न हुए थे। वे लिखते हैं कि सिद्धसेन विक्रम की चौथी शताब्दी में हुए हैं। "उस युग में श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय ऐसे सम्प्रदाय अस्तित्व में नहीं आ पाये थे । श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदाय के सम्बन्ध में स्पष्ट नामनिर्देश के साथ जो सर्वप्रथम उल्लेख उपलब्ध होते हैं, वे लगभग ई० सन् ४७५ तदनुसार विक्रम सं० ५३२ के लगभग अर्थात् विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्वार्ध के हैं । अतः काल के आधार पर सिद्धसेन को किसी सम्प्रदायविशेष के साथ नहीं जोड़ा जा सकता, क्योंकि उस युग तक न तो सम्प्रदायों का नामकरण हुआ था और न ही वे अस्तित्व में आये थे ।" (जै.ध.या.स./ पृ.२३१-२३२) । यही बात वे इन शब्दों में दुहराते हैं- "सिद्धसेन दिगम्बर, श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्पराओं के अस्तित्व में आने के पूर्व ही हो चुके थे । वे उत्तरभारत की निर्ग्रन्थधारा में हुए हैं, जो आगे चलकर श्वेताम्बर और यापनीय के रूप में विभाजित हुई । यापनीयपरम्परा के ग्रन्थों में सिद्धसेन का आदरपूर्वक उल्लेख उनके अपनी पूर्वज धारा के एक विद्वान् आचार्य होने के कारण ही है ।" ( वही / पृ. २३६) । निरसन प्रस्तुत ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में सिद्ध किया जा चुका है कि उत्तरभारत में तो क्या, भारत के किसी भी कोने में सचेलाचेल - निर्ग्रन्थ-1 - परम्परा नाम की या निर्ग्रन्थ नाम के साथ सचेल और अचेल दोनों लिंगों से मुक्ति माननेवाली कोई परम्परा M नहीं थी । इसलिए सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन उक्त परम्परा के आचार्य नहीं थे। तथा सिद्धसेन को जो विक्रम की चतुर्थ शताब्दी में हुआ बतलाया गया है, वह समीचीन नहीं है। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने पूर्वोद्धृत लेख में सप्रमाण सिद्ध किया है कि सिद्धसेन ने सन्मतिसूत्र में जिस उपयोग- क्रमवाद का खण्डन किया है, उसकी प्रतिष्ठा विक्रम की छठी शताब्दी (वि० सं० ५६२) में श्वेताम्बर - परम्परा में हुए भद्रबाहु द्वितीय ने आवश्यकनिर्युक्ति में की है। और उसका सर्वप्रथम खण्डन विक्रम की सातवीं शती में हुए श्वेताम्बर जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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