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________________ ६२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०८ में तथा दिगम्बर अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में किया है। इस प्रकार सिद्धसेन विक्रम की छठी और सातवीं शताब्दी के बीच हुए थे। तथा विक्रम की ५वीं-६वीं शताब्दी में विद्यमान पूज्यपादस्वामी की सर्वार्थसिद्धि टीका में क्रमवाद का खण्डन नहीं मिलता, जब कि उनके बाद हुए अकलंकदेव के तत्त्वार्थराजवार्तिक (६/१०) में मिलता है। इससे सिद्ध है कि वे पूज्यपाद देवनन्दी के बाद हुए हैं। पूज्यपाद ने जैनेन्द्रव्याकरण में 'वेत्तेः सिद्धसेनस्य' सूत्र के द्वारा जिन सिद्धसेन का उल्लेख किया है, वे नौवीं द्वात्रिंशिका के कर्ता सिद्धसेन हैं, न कि सन्मतिसूत्र के कर्ता सिद्धसेन । इस तरह सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन विक्रम की छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में और सातवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में हुए हैं, न कि चौथी शताब्दी में। इस स्थितिकाल के परिप्रेक्ष्य में भी उक्त ग्रन्थलेखक की यह कल्पना धराशयी हो जाती है कि सिद्धसेन श्वेताम्बर और यापनीयों की पूर्वजपरम्परा अर्थात् उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थपरम्परा में उत्पन्न हुए थे, क्योंकि विक्रम की छठी शती के उत्तरार्ध में तो श्वेताम्बरों और यापनीय दोनों का अस्तित्व था। फलस्वरूप यही निर्णीत होता है कि सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन दिगम्बराचार्य थे। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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