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________________ अ०१३/प्र०१ भगवती-आराधना / ३९ ५.१३. मूर्छा, राग, इच्छा, ममत्व एकार्थक यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि 'मूर्छा' शब्द में राग, इच्छा, आसक्ति, ममत्व आदि अर्थ गर्भित हैं। कसायपाहुड (भाग १२ / पृ.१८९) में कहा गया है कामो राग णिदाणो छंदो य सुदो य पेज दोसो य। णेहाणुराग आसा इच्छा मुच्छा य गिद्धी य॥ ८९॥ सासद पत्थण लालस अविरदि तण्हा य विज जिब्भा य। लोभस्स णामधेजा बीसं एगट्ठिया भणिदा॥ ९०॥ अनुवाद-"काम, राग, निदान, छन्द, सुत या स्वत, प्रेय, दोष, स्नेह, अनुराग, आशा, इच्छा, मूर्छा, गृद्धि, साशता या शाश्वत, प्रार्थना, लालसा, अविरति, तृष्णा, विद्या और जिह्वा ये बीस लोभ के एकार्थक नाम कहे गये हैं।" समवायांग में भी लोभ के ये ही पर्यायवाची बतलाये गये हैं-"लोभे इच्छा मुच्छा कंखा गेही तिण्हा भिजा अभिजा कामासा भोगासा जीवियासा मरणासा नंदी रागे।" (समवाय ५२)। अपराजित सूरि ने भी ममत्व (मूर्छा) को राग का समानार्थी बतलाया है-"ममेदं भावो रागः।" (वि.टी./भ.आ./गा.१११५/पृ.५७२)। आचार्य कुन्दकुन्द ने इच्छा को परिग्रह कहा है-'अपरिग्गहो अणिच्छो' (स. सा./गा.२१०)। अर्थात् जो इच्छारहित है वह अपरिग्रही है। आचार्य अमृतचन्द्र ने इसका स्पष्टीकरण अपनी 'आत्मख्याति' संज्ञक टीका में "इच्छा परिग्रहः" (इच्छा परिग्रह है) कहकर किया है। ___ इस प्रकार राग, इच्छा, लोभ, मूर्छा, ममत्व ये एकार्थक शब्द हैं। यह भी कहा जा सकता है कि 'मूर्छा' शब्द में ये सभी अर्थ गर्भित हैं। परिग्रह के उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है कि भगवती-आराधनाकार ने मूर्छा और बाह्यपरिग्रह में अन्वय-व्यतिरेक या अन्योन्याश्रयसम्बन्ध दर्शाया है। अर्थात् मूर्छा (राग, देहसुख की इच्छा) होने पर ही जीव बाह्यपरिग्रह ग्रहण करता है और बाह्यपरिग्रह होने पर मूर्छा की उत्पत्ति अनिवार्यतः होती है। इसलिए जहाँ मूर्छा है, वहाँ बाह्यपरिग्रह भले न हो, किन्तु जहाँ बाह्यपरिग्रह है, वहाँ मूर्छा का अस्तित्व अवश्य होता है। तदानयनं, तत्संस्करणं, तद्रक्षणम् इत्यादिकम् आदिशब्देन गृहीतम्। सङ्गरहिते न सन्ति सर्वे व्याक्षेपाः। ध्यानमध्ययनं च व्याक्षेपाभावात् चेतसि, अपरिग्रहस्य विघ्नमन्तरेण वर्तते। सर्वेषु तपस्सु प्रधानयोर्ध्यानस्वाध्यायोरुपायो अपरिग्रहता इत्याख्यातमनया गाथया।" वि.टी./भ.आ./गा.११६७। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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