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________________ ३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र०१ णिस्संगो चेव सदा कसायसल्लेहणं कुणदि भिक्खू। । संगा हू उदीरेंति कसाय अग्गीव कट्ठाणि॥ ११६९॥ अनुवाद-"अपरिग्रही साधु ही सदा कषायरूप परिणामों को कृश करता है, परिग्रही नहीं, क्योंकि जैसे लकड़ी डालने से आग भड़कती है, वैसे ही परिग्रह से कषाय भड़कती है।" ५.११. परिग्रहत्याग परीषहजय का उपाय इसका वर्णन भगवती-आराधना में निम्न गाथा द्वारा हुआ है सीदुण्ह-दंसमसयादियाण दिण्णो परीसहाण उरो। सीदादि-णिवारणए गंथे णिययं जहंतेण॥ ११६५॥ अनुवाद-"शीत आदि का निवारण करनेवाले वस्त्रादि परिग्रह को जो. नियम से त्याग देता है, वह शीत, उष्ण, दंशमशक आदि के परीषहों ३८ को सहने के लिए अपनी छाती आगे कर देता है।" ५.१२. परिग्रहत्याग से ध्यान-अध्ययन निर्विन परिग्रहरहित साधु के ध्यान और अध्ययन निर्विघ्न सम्पन्न होते हैं, इस तथ्य का प्रकाशन करनेवाली भगवती-आराधना की यह गाथा द्रष्टव्य है संगपरिमग्गणादी णिस्संगे णथि सव्वविक्खेवा। ज्झाण-ज्झेणाणि तओ तस्स अविग्घेण वच्चंति॥ ११६७॥ इस गाथा के भाव को अपराजित सूरि ने इस प्रकार स्पष्ट किया है-“इष्ट परिग्रह को खोजने में कष्ट होता है। वह मिल भी जाय, तो उसके स्वामी को ढूंढने में कष्ट होता है। स्वामी मिल जाय, तो उससे याचना करनी पड़ती है। याचना करने पर मिल जाय, तो सन्तोष होता है, न मिले तो मन में दीनता का भाव आता है। मिलने पर उसको लाना, उसका संस्कार करना, उसकी रक्षा करना, इत्यादि कार्यों के कष्ट उठाने पड़ते हैं। इस तरह परिग्रह अनेक आकुलताओं का घर है। परिग्रह का त्याग कर निर्ग्रन्थ बन जाने पर ये सब झंझटें नहीं रहतीं। तब चित्त में किसी प्रकार की आकुलता न होने से निर्ग्रन्थ साधु के ध्यान और स्वाध्याय निर्विघ्न चलते हैं। इस प्रकार इस गाथा के द्वारा कहा गया है कि समस्त तपों में ध्यान और स्वाध्याय प्रधान हैं और परिग्रह का त्याग उनका उपाय है।" ३९ ३८. "दुःखोपनिपाते सङ्क्लेशरहितता परीषहजयः।" विजयोदयाटीका/भ.आ./गा. ११६५ । ३९. "परिग्रहान्वेषणादि परिग्रहस्य स्वाभिलषितस्य अस्तित्वगवेषणे क्लेशमस्तीति। तथा तत्स्वामिनां, कोऽस्य स्वामित्वं वा क्वासौ अवतिष्ठते इति । पुनर्याच्या। लाभे सन्तोषः, अलाभे दीनमनस्कता। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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