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अ० १३ / प्र० १
भगवती - आराधना / ३७
छेदणबंधणवेढणआदावणधोव्वणादिकिरियासु । संघट्टण - परिदावण-हणणादी होदि जीवाणं ॥ ११५४॥
अनुवाद - " वस्त्रादि परिग्रह के ग्रहण करने, रखने, संस्कार करने, बाहर ले जाने, बंधन खोलने, फाड़ने, झाड़ने, छेदने, बाँधने, ढाँकने, सुखाने, धोने, मलने आदि में जीवों का घात होता है । "
जदि वि विकिंचदि जंतू दोसा ते चेव हुंति से लग्गा । होदि य विकिंचणे वि हु तज्जोणिविओजणा णिययं ॥ ११५५ ॥
अनुवाद - " यदि वस्त्रादि परिग्रह से जन्तुओं को अलग किया जाय, तब भी वे ही दोष लगते हैं, क्योंकि उन जंतुओं को दूर करने पर उनका योनिस्थान (उत्पत्तिस्थान) छूट जाता है और इससे उनका मरण हो जाता है । "
५. ९. परिग्रह स्वाध्याय में बाधक
भगवती - आराधना की अधोवर्णित गाथा दर्शाती है कि परिग्रह स्वाध्याय और ध्यान में बाधक है
गंथस्स गहणरक्खणसारवणाणि णियदं करेमाणो ।
विक्खित्तमणो ज्झाणं उवेदि कह मुक्कसज्झाओ ॥ ११५८ ॥
अनुवाद - " परिग्रह के ग्रहण, रक्षण और उसके सार - सम्हाल में सदा लगे रहनेवाले पुरुष का मन उसी में व्याकुल रहता है, तब स्वाध्याय छूट जाने से शुभध्यान कैसे कर सकता है ?
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५.१०. परिग्रहत्याग से रागद्वेष का त्याग
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परिग्रह त्याग देने से रागद्वेष छूट जाते हैं, इस तथ्य का प्रकाशन भगवतीआराधना की इन गाथाओं में हुआ है
रागो हवे मणुण्णे गंथे दोसो य होइ अमणुण्णे । गंथच्चाएण पुण रागद्दोसा हवे
अनुवाद - " मनोज्ञ विषय में राग होता है और अमनोज्ञ विषय में द्वेष, अतः परिग्रह का त्याग कर देने से रागद्वेष का त्याग हो जाता है । "
चत्ता ॥ ११६४॥
अपराजित सूरि ने भी प्रस्तुत गाथा की व्याख्या में यही बात कही है - " रागद्वेषयोः कर्मणां मूलयोर्निमित्तं परिग्रहः । परिग्रहत्यागे रागद्वेषौ एव त्यक्तौ भवतः । " (वि.टी./ पृ. ५८६)।
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