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________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३०१ अनुवाद-"प्रश्न-मोहनीय के उदय की सहायता के अभाव में क्षुधादिवेदना न होने से यहाँ 'परीषह' शब्द का प्रयोग उचित नहीं है? समाधान-यह सत्य है, किन्तु यहाँ वेदना के अभाव में भी केवल द्रव्यकर्म (असातावेदनीय) का सद्भाव होने की अपेक्षा 'परीषह' शब्द का उपचार किया गया है, जैसे ज्ञानावरणकर्म के क्षय से केवलज्ञान प्रकट होने पर सयोग-अयोग केवली गुणस्थानों में एकाग्रचिन्तानिरोध का अभाव हो जाता है, तो भी उसका निर्जरारूप फल वहाँ उपलब्ध होने से ध्यान शब्द का उपचार होता है।" पूज्यपाद स्वामी के इन वचनों से उपर्युक्त प्रश्न का समाधान अच्छी तरह से हो जाता है। माननीय सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री ने इस विषय का विस्तार से विवेचन भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित 'सर्वार्थसिद्धि' ग्रन्थ की प्रस्तावना में किया है। उसे यहाँ ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया जा रहा है "परीषहों का विचार छठे गुणस्थान से किया जाता है, क्योंकि श्रामण्यपद का प्रारम्भ यहीं से होता है, अतः इस गुणस्थान में सब परीषह होते हैं, यह तो ठीक ही है, क्योंकि इस गुणस्थान में प्रमाद का सद्भाव रहता है और प्रमाद के सद्भाव में क्षुधादिजन्य विकल्प और उसके परिहार के लिए चित्रवृत्ति को उस ओर से हटाकर धर्म्यध्यान में लगाने के लिए प्रयत्नशील होना ये दोनों कार्य बन जाते हैं। तथा सातवें गुणस्थान की स्थिति प्रमादरहित होकर भी इससे भिन्न नहीं है, क्योंकि इन दोनों गुणस्थानों में प्रमाद और अप्रमादजन्य ही भेद है। यद्यपि विकल्प और तदनुकूल प्रवृत्ति का नाम छठा गुणस्थान है और उसके निरोध का नाम सातवाँ गुणस्थान है, तथापि इन दोनों गुणस्थानों की धारा इतनी अधिक चढ़ा-उतार की है, जिससे उनमें परीषह और उनके जय आदि कार्यों का ठीक तरह से विभाजन न होकर, ये कार्य मिलकर दोनों के मानने पड़ते हैं। छठे गुणस्थान तक वेदनीय की उदीरणा होती है आगे नहीं, इसलिए यह कहा जा सकता है कि वेदनीय के निमित्त से जो क्षुधादिजन्य वेदनकार्य छठे गुणस्थान में होता है वह आगे कथमपि सम्भव नहीं। विचारकर देखने पर बात तो ऐसी ही प्रतीत होती है और है भी वह वैसी ही, क्योंकि अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में जब जीव की न तो बाह्यप्रवृत्ति होती है और न बाह्यप्रवृत्ति के अनुकूल परिणाम ही होते हैं, साथ ही कषायों का उदय अव्यक्तरूप से अबुद्धिपूर्वक होता है, तब वहाँ क्षुधादि परीषहों का सद्भाव मानना कहाँ तक उचित है, यह विचारणीय हो जाता है। इसलिए यहाँ यह देखना है कि आगे के गुणस्थानों में इन परीषहों का सद्भाव किस दृष्टि से माना गया है। "किसी भी पदार्थ का विचार दो दृष्टियों से किया जाता है, एक तो कार्य की दृष्टि से और दूसरे कारणकी दृष्टि से। परीषहों का कार्य क्या है और उनके कारण Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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