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________________ ३०२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १६ / प्र० १ क्या हैं, इस विषय का साङ्गोपाङ्ग ऊहापोह शास्त्रों में किया है। परीषह तथा उनके जय का अर्थ है 'बाधा के कारण उपस्थित होने पर उनमें जाते हुए अपने चित्त को रोकना तथा स्वाध्याय, ध्यान आदि आवश्यक कार्यों में लगे रहना ।' परीषह और उनके जय के इस स्वरूप को ध्यान में रखकर विचार करने पर ज्ञात होता है कि एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान ही ऐसा है, जिसमें बाधा के कारण उपस्थित होने पर उनमें चित्त जाता है और उनसे चित्तवृत्ति को रोकने के लिए यह जीव उद्यमशील होता है । किन्तु आगे के गुणस्थानों की स्थिति इससे भिन्न है । वहाँ बाह्य कारणों के रहने पर भी उनमें चित्तवृत्ति का रंचमात्र भी प्रवेश नहीं होता। इतना ही नहीं, कुछ आगे चलकर तो यह स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि वहाँ न तो बाह्य कारण ही उपस्थित होते हैं और न चित्तवृत्ति ही शेष रहती है। इसलिए इन गुणस्थानों में केवल अन्तरंग कारणों को ध्यान में रखकर ही परीषहों का निर्देश किया गया है। कारण भी दो प्रकार के होते हैं: एक बाह्य कारण और दूसरे अन्तरङ्ग कारण । बाह्य कारणों के उपस्थित होने का तो कोई नियम नहीं है । किन्हीं को उनकी प्राप्ति सम्भव भी है और किन्हीं को नहीं भी । परन्तु अन्तरङ्ग कारण सबके पाये जाते हैं। यही कारण है कि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों में परीषहों के कारणों का विचार करते समय मुख्यरूप से अन्तरङ्ग कारणों का ही निर्देश किया है। इसी से तत्त्वार्थसूत्र में वे अन्तरंग कारण ज्ञानावरण, वेदनीय, दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय और अन्तराय के उदयरूप कहे हैं, अन्यरूप नहीं । " कुल परीषह बाईस हैं। इनमें से प्रज्ञा और अज्ञान परीषह ज्ञानावरण के उदय में होते हैं। ज्ञानावरण का उदय क्षीणमोह गुणस्थान तक होता है, इसलिए इनका सद्भाव क्षीणमोह गुणस्थान तक कहा है। किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं कि प्रज्ञा और अज्ञान के निमित्त से जो विकल्प प्रमत्तसंयत जीव के हो सकता है, वह अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में भी होता है। आगे के गुणस्थानों में इस प्रकार के विकल्प के न होने पर भी वहाँ केवल ज्ञानावरण का उदय पाया जाता है, इसलिए वहाँ इन परीषहों का सद्भाव कहा है। " अदर्शन परीषह दर्शनमोहनीय के उदय में और अलाभ परीषह अन्तराय के उदय में होते हैं। यह बात किसी भी कर्मशास्त्र के अभ्यासी से छिपी हुई नहीं है कि दर्शनमोहनीय का उदय अधिक से अधिक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही होता है, इसलिए अदर्शन परीषह का सद्भाव अधिक से अधिक इसी गुणस्थान तक कहा जा सकता है और अन्तराय का उदय क्षीणमोह गुणस्थान तक होता है, इसलिए अलाभ परीषह का सद्भाव वहाँ तक कहा है । किन्तु कार्यरूप में ये दोनों परीषह भी प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही जानने चाहिए । आगे इनका सद्भाव दर्शनमोहनीय के उदय और अन्तराय के उदय की अपेक्षा ही कहा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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