SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अ०१६/प्र०१ तत्त्वार्थसूत्र / ३०३ "प्रसङ्ग से यहाँ इस बात का विचार कर लेना भी इष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य गृद्धपिच्छ बादरसाम्पराय जीव के सब परीषहों का सद्भाव बतलाते हैं। उन्हें बादरसाम्पराय शब्द का अर्थ क्या अभिप्रेत रहा होगा? हम यह तो लिख ही चुके हैं कि दर्शनमोहनीय का उदय अप्रमत्तसंयतगुण स्थान तक ही होता है, इसलिए अदर्शन परीषह का सद्भाव अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से आगे कथमपि नहीं माना जा सकता। ऐसी अवस्था में बादरसाम्पराय का अर्थ स्थूलकषाययुक्त जीव ही हो सकता है। यही कारण है कि सर्वार्थसिद्धि में इस पद की व्याख्या करते हुए यह कहा है कि "यह गुणस्थानविशेष का ग्रहण नहीं है। तो क्या है? सार्थक निर्देश है। इससे प्रमत्त आदि संयतों का ग्रहण होता है।" ८४ ___ "किन्तु तत्त्वार्थभाष्य में 'बादरसम्पराये सर्वे' (९/१२) इस सूत्र की व्याख्या इन शब्दों में की है-'बादरसम्परायसंयते सर्वे द्वाविंशतिरपि परीषहाः सम्भवन्ति।' अर्थात् बादरसाम्पराय-संयत के सब अर्थात् बाईस परीषह ही सम्भव हैं। तत्त्वार्थभाष्य के मुख्य व्याख्याकार सिद्धसेनगणी हैं। वे तत्त्वार्थभाष्य के उक्त शब्दों की व्याख्या इन शब्दों में करते हैं "बादरः स्थूलः सम्परायः कषायस्तदुदयो यस्सासौ बादरसम्परायः संयतः। स च मोह-प्रकृती: कश्चिदुपशमयतीत्युपशमकः। कश्चित् क्षपयतीति क्षपकः। तत्र सर्वेषां द्वाविंशतेरपि क्षुधादीनां परीषहाणामदर्शनान्तानां सम्भव:---।" (त.भाष्यवृत्ति/९/१२)। ___ "जिसके कषाय स्थूल होता है, वह बादरसम्परायसंयत कहलाता है। उनमें से कोई मोहनीय का उपशम करता है, इसलिए उपशमक कहलाता है और कोई क्षय करता है, इसलिए क्षपक कहलाता है। इसके सभी बाईस क्षुधा आदि परीषहों का सद्भाव सम्भव है। "इस व्याख्यान से स्पष्ट है कि सिद्धसेनगणी के अभिप्राय से तत्त्वार्थभाष्यकार वाचक उमास्वाति को यहाँ बादरसम्पराय पद से नौवाँ गुणस्थान ही इष्ट है। प्रज्ञाचक्षु पं० सुखलाल जी ने तत्त्वार्थसूत्र (९/१२) की व्याख्या में यही अर्थ स्वीकार किया है। वे लिखते हैं-"जिसमें सम्पराय (कषाय) की बादरता अर्थात् विशेषरूप में सम्भावना हो, उस बादरसम्पराय नामक नौवें गुणस्थान में बाईस परीषह होते हैं, क्योंकि परीषहों के कारणभूत सभी कर्म वहाँ होते हैं।" "बादरसाम्पराय' पद की ये दो व्याख्याएँ हैं, जो क्रमशः सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थभाष्य में उपलब्ध होती हैं। सर्वार्थसिद्धि की व्याख्या के अनुसार बादरसाम्पराय ८४. "नेदं गुणस्थानविशेषग्रहणम्। किं तर्हि ? अर्थनिर्देशः। तेन प्रमत्तादीनां संयतादीनां __ ग्रहणम्।" सर्वार्थसिद्धि । ९/१२। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy