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________________ ३०४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ पद गुणस्थान-विशेष का सूचक न होकर अर्थपरक निर्देश होने से दर्शनमोहनीय के उदय में अदर्शनपरीषह होता है, इस अर्थ की सङ्गति बैठ जाती है। किन्तु तत्त्वार्थभाष्य की व्याख्या को स्वीकार करने पर एक नयी अड़चन उठ खड़ी होती है। दर्शनमोहनीय का सत्त्व उपशान्तमोह-गुणस्थान तक रहता है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि उन्होंने दर्शनमोहनीय के सत्त्व की अपेक्षा बादरसाम्पराय नामक नौवें गुणस्थान तक अदर्शनपरीषह कहा होगा। किन्तु इस मत को स्वीकार करने पर दो नयी आपत्तियाँ और सामने आती हैं। प्रथम तो यह कि यदि उन्होंने दर्शनमोहनीय के सत्त्व की अपेक्षा अदर्शनपरीषह का सद्भाव स्वीकार किया है, तो उसका सद्भाव ग्यारहवें गुणस्थान तक कहना चाहिए। दूसरी यह कि 'क्षुत्पिपासा शीतोष्ण---' इत्यादि सूत्र की व्याख्या करते हुए वह कहते हैं कि 'पञ्चानामेव कर्मप्रकृतीनामुदयादेते परीषहाः प्रादुर्भवन्ति।' अर्थात् पाँच कर्मप्रकृतियों के उदय से ये परीषह उत्पन्न होते हैं। सो पूर्वोक्त अर्थ के स्वीकार करने पर इस कथन की सङ्गति नहीं बैठती दिखलाई देती। क्योंकि एक ओर तो दर्शनमोहनीय के सत्त्व की अपेक्षा अदर्शनपरीषह को नौवें गुणस्थान तक स्वीकार करना और दूसरी ओर सब परीषहों को पाँच कर्मों के उदय का कार्य कहना, ये परस्पर विरोधी दोनों कथन कहाँ तक युक्तियुक्त हैं, यह विचारणीय हो जाता है। स्पष्ट है कि सिद्धसेनगणी की टीका के अनुसार तत्त्वार्थभाष्य का कथन न केवल स्खलित है, अपितु वह मूल सूत्रकार के अभिप्राय के प्रतिकूल भी है, क्योंकि मूलसूत्रकार ने इन परीषहों का सद्भाव कर्मों के उदय की मुख्यता से ही स्वीकार किया है। अन्यथा वे अदर्शनपरीषह का सद्भाव और चारित्रमोह के निमित्त से होने वाले नाग्न्य आदि परीषहों का सद्भाव उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान तक अवश्य कहते। "नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार-पुरस्कार, ये सात परीषह चारित्रमोहनीय के उदय में होते हैं। सामान्यतः चारित्रमोहनीय का उदय यद्यपि सूक्ष्मसाम्परायिक नामक दसवें गुणस्थान तक होता है, इसलिए इन सात परीषहों का सद्भाव दसवें गुणस्थान तक कहना चाहिए था, ऐसी शंका की जा सकती है, परन्तु इनका दसवें गुणस्थान तक सद्भाव न बतलाने के दो कारण हैं। प्रथम तो यह कि चारित्रमोहनीय के अवान्तरभेद क्रोध, मान और माया का तथा नौ नोकषायों का उदय नौवें गुणस्थान के अमुक भाग तक ही होता है, इसलिए इन परीषहों का सद्भाव नौवें गुणस्थान तक कहा है। दूसरा यह कि दसवें गुणस्थान में यद्यपि चारित्रमोहनीय का उदय होता है अवश्य, पर एक लोभ कषाय का ही उदय होता है और वह भी अतिसूक्ष्म, इसलिए इनका सद्भाव दसवें गुणस्थान तक न कहकर मात्र नौवें गुणस्थान तक कहा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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