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३०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६/प्र०१ और प्रार्थना, इच्छा, काम, अभिलाष, काङ्क्षा, गाय तथा मूर्छा समानार्थी हैं। ३ तथा भोजन-याचना की क्रिया याचना की इच्छा के बिना नहीं हो सकती और भोजनयाचना की इच्छा भोजनेच्छा के बिना संभव नहीं है तथा भोजनेच्छा क्षुधा-पीड़ा के अभाव में असंभव है। अतः सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्र के मतानुसार असातावेदनीय का उदय तीव्रमोहोदय के सद्भाव में ही क्षुधापीड़ा उत्पन्न करने में समर्थ होता है तथा भोजनेच्छा एवं याचनेच्छा तीव्रमोहोदय के कार्य हैं। किन्तु श्वेताम्बराचार्य मानते हैं कि क्षुधा की पीड़ा मोहोदय के अभाव में केवल असातावेदनीय के उदय से होती है, इसीलिए केवली को भी क्षुधापरीषह होता है। उनकी यह मान्यता तत्त्वार्थसूत्रकार के मत के विरुद्ध है। यह भी तत्त्वार्थसूत्र के दिगम्बरग्रन्थ होने का एक प्रमाण है।
१.७.६. परीषह न होने पर भी होने का कथन क्यों?–यहाँ प्रश्न उठता है कि अप्रमत्त गुणस्थान से लेकर सयोगकेवली गुणस्थान तक जो यथायोग्य क्षुधादिपरीषह होते ही नहीं हैं, उनके होने का कथन क्यों किया गया है? इस प्रश्न का समाधान पूज्यपादस्वामी ने "सूक्ष्मसाम्परायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश" (९ /१०) सूत्र की टीका में इस प्रकार किया है
"ननु मोहोदयसहायाभावान्मन्दोदयत्वाच्च क्षुदादिवेदनाभावात्तत्सहनकृतपरीषहव्यपदेशो न युक्तिमवतरति। तन्न? किं कारणम्? शक्तिमात्रस्य विवक्षितत्वात् सर्वार्थसिद्धिदेवस्य सप्तमपृथिवीगमनसामर्थ्यव्यपदेशवत्।"
अनुवाद-"प्रश्न-मोहोदय की सहायता के अभाव में तथा मोह के मन्दोदय में क्षुधादिवेदना उत्पन्न नहीं होती, अतः उसे सहन करने के अर्थवाले ‘परीषह' शब्द का प्रयोग उपर्युक्त गुणस्थानों में युक्तियुक्त नहीं है। समाधान-यह कथन उचित नहीं है, क्योंकि वहाँ 'सहन करते हैं' इस अर्थवाले 'परीषह' शब्द का प्रयोग केवल असातावेदनीय आदि कर्मों के उदय की शक्ति बतलाने के लिए किया गया है, जैसे सर्वार्थसिद्धि के देव यद्यपि सप्तम पृथिवी तक जाते नहीं हैं, तथापि वहाँ तक जाने की उनमें सामर्थ्य होती है, केवल यह दर्शाने के लिए वे 'सप्तम पृथ्वी तक गमन करते हैं' ऐसा कहा जाता है।"
___ यही समाधान पूज्यपाद स्वामी ने 'एकादश जिने' (त.सू.९ / ११) सूत्र की टीका के प्रसंग में किया है। यथा
"ननु च मोहनीयोदयसहायाभावात्क्षुधादिवेदनाभावे परिषहव्यपदेशो न युक्तः? सत्यमेवेतत्वेदनाभावेऽपि द्रव्यकर्मसद्भावापेक्षया परिषहोपचारः क्रियते, निरवशेषनिरस्तज्ञानातिशये चिन्तानिरोधाभावेऽपि तत्फकर्मनिर्हरणफलापेक्षया ध्यानोपचारवत्।"
८३. "इच्छा प्रार्थना कामोऽभिलाषः काङ्क्षा गाद्ध्यं मूर्छत्यनर्थान्तरम्।" तत्त्वार्थाधिगमभाष्य ७/१२ ।
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