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________________ ५९२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० ४ योगीरूप से उनका कहीं उल्लेख नहीं' किसी तरह भी समुचित नहीं कहा जा सकता । रत्नकरण्ड की अब तक ऐसी कोई प्राचीन प्रति भी प्रो० साहब की तरफ से उपस्थित नहीं की गई, जिसमें ग्रन्थकर्ता को 'योगीन्द्र' नाम का कोई विद्वान् लिखा हो अथवा स्वामी समन्तभद्र से भिन्न दूसरा कोई समन्तभद्र उसका कर्ता है, ऐसी स्पष्ट सूचना साथ में की गई हो।" (जै. सा. इ. वि. प्र. / खं. १ / पृ. ४६७ - ४७० ) "समन्तभद्र नाम के दूसरे छह विद्वानों की खोज करके मैंने उसे रत्नकरण्ड श्रावकाचार की अपनी प्रस्तावना में आज से कोई २३ वर्ष पहले प्रकट किया था। उसके बाद से और किसी समन्तभद्र का अब तक कोई पता नहीं चला। उनमें से एक लघु, दूसरे चिक्क, तीसरे गेरुसोप्पे, चौथे अभिनव, पाँचवें भट्टारक, छठे गृहस्थ विशेषण विशिष्ट पाये जाते हैं । उनमें से कोई भी अपने समयादिक की दृष्टि से 'रत्नकरण्ड' का कर्ता नहीं हो सकता १३० और इसलिये जब तक जैनसाहित्य पर से किसी ऐसे दूसरे समन्तभद्र का पता न बतलाया जाय, जो इस रत्नकरण्ड का कर्ता हो सके, तब तक 'रत्नकरण्ड' के कर्ता के लिये 'योगीन्द्र' विशेषण के प्रयोग मात्र से उसे कोरी कल्पना के आधार पर स्वामी समन्तभद्र से भिन्न किसी दूसरे समन्तभद्र की कृति नहीं कहा जा सकता । "ऐसी वस्तुस्थिति में वादिराज के उक्त दोनों पद्यों को प्रथम पद्य के साथ स्वामिसमन्तभद्र-विषयक समझने और बतलाने में कोई भी बाधा प्रतीत नहीं होती । १३१ प्रत्युत इसके, वादिराज के प्रायः समकालीन विद्वान् आचार्य प्रभाचन्द्र का अपनी टीका में ‘रत्नकरण्ड' उपासकाध्ययन को साफ तौर पर स्वामी समन्तभद्र की कृति घोषित करना उसे पुष्ट करता है। उन्होंने अपनी टीका के केवल संधिवाक्यों में ही समन्तभद्रस्वामिविरचित जैसे विशेषणों द्वारा वैसी घोषणा नहीं की, बल्कि टीका की आदि में निम्न प्रस्तावना - वाक्य द्वारा भी उसकी स्पष्ट सूचना की है " श्रीसमन्तभद्रस्वामी रत्नानां रक्षणोपायभूतरत्नकरण्डकप्रख्यं सम्यग्दर्शनादिरत्नानां पालनोपायभूतं रत्नकरण्डकाख्यं शास्त्रं कर्तुकामो निर्विघ्नतः शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं फलमभिलषन्निष्टदेवताविशेषं नमस्कुर्वन्नाह । " १३०. देखिए, माणिकचन्द - ग्रन्थमाला में प्रकाशित रत्नकरण्ड श्रावकाचार / प्रस्तावना / पृ. ५ से ९ । १३१. सन् १९१२ में तंजोर से प्रकाशित होनेवाले वादिराज के 'यशोधर - चरित' की प्रस्तावना में, टी. ए. गोपीनाथराव, एम. ए. ने भी इन तीनों पद्यों को इसी क्रम के साथ समन्तभद्रविषयक सूचित किया है। इसके सिवाय, प्रस्तुत चरित पर शुभचन्द्रकृत जो 'पंजिका' है, उसे देखकर पं० नाथूराम जी प्रेमी ने बाद को यह सूचित किया है कि उसमें भी ये तीनों पद्य समन्तभद्रविषयक माने गये । और तीसरे पद्य में प्रयुक्त हुए 'योगीन्द्र' पद का अर्थ 'समन्तभद्र' ही लिखा है। इससे बाधा की जगह साधक प्रमाण की बात और भी सामने आ जाती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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