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________________ अ० १९ / प्र० २ रविषेणकृत पद्मपुराण / ६४७ दिगम्बरीकरण किया है, किन्तु वे आरंभ में प्रभवस्वामी के स्थान में जम्बूस्वामी का नाम रखना भूल गये । यह भूल उन्होंने ग्रन्थ ( पद्मपुराण / भाग ३) के अन्त में सुधार ली । वहाँ उन्होंने प्रभवस्वामी के स्थान में जम्बूस्वामी का ही उल्लेख किया है । यथा निर्दिष्टं सकलैर्नतेन भुवनैः श्रीवर्द्धमानेन यत् तत्त्वं वासवभूतिना निगदितं जम्बोः प्रशिष्यस्य च । शिष्येणोत्तरवाग्मिना प्रकटितं पद्मस्य वृत्तं मुनेः श्रेयः साधुसमाधिवृद्धिकरणं सर्वोत्तमं मङ्गलम् ॥ १२३ / १६७ ॥ इस प्रकार प्रभवस्वामी का उल्लेख भूल से हुआ है, अतः वह पद्मपुराण के यापनीय-ग्रन्थ होने का हेतु नहीं है, अपितु हेत्वाभास है । ३ यापनीयपक्ष "रविषेण द्वारा दिगम्बर - परम्परा में प्रचलित गुणभद्रवाली कथा को न अपनाकर विमलसूरि की कथा को अपनाना भी उन्हें दिगम्बर - भिन्न परम्परा का द्योतित करता है । यद्यपि आचार्य गुणभद्र का समय आचार्य रविषेण से परवर्ती हैं, परन्तु गुणभद्र की कथा की एक पूर्वपरम्परा थी, यह बात चामुण्डराय - लिखित चामुण्डराय-पुराण (त्रिषष्टिलक्षणमहापुराण) से मालूम होती है।" (या. औ. उ. सा. / पृ. १४७-१४८)। दिगम्बरपक्ष रविषेण ने पद्मपुराण में यापनीयमत-विरोधी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, यह इस बात का अखण्ड्य प्रमाण है कि वे यापनीय - परम्परा के नहीं, बल्कि दिगम्बरपरम्परा के हैं। उन्होंने श्वेताम्बर विमलसूरि-प्रणीत कथा का दिगम्बरीकरण किया है, यह उनके दिगम्बर होने का स्पष्ट प्रमाण है। अतः विमलसूरिकृत कथा का अनुकरण रविषेण के यापनीय होने का हेतु नहीं है, अत एव वह हेत्वाभास है । ४ यापनीयपक्ष "रविषेण की कथा को यापनीय स्वयम्भू द्वारा अपनाया जाना भी रविषेण को यापनीय मानने का एक महत्त्वपूर्ण कारण है । स्वयम्भू ने रामकथा की परम्परा को वर्धमान, इन्द्रभूति, सुधर्मा, प्रभव, अनुत्तरवाग्मी कीर्ति तथा रविषेण से क्रमशः प्राप्त बताया है। रविषेण के प्रति आभार प्रदर्शित करते हुए कहा है- ' आचार्य रविषेण के प्रसाद से प्राप्त कथासरिता में कविराज ने अपनी बुद्धि से अवगाहन किया है।' पद्मचरित में प्रभवस्वामी का उल्लेख तथा स्वयंभू द्वारा आदरपूर्वक रविषेण के प्रति कृतज्ञता - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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