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________________ ६४८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ज्ञापन, दोनों तथ्य रविषेण को यापनीय मानने को प्रेरित करते हैं।" (या. औ. उ. सा. / पृ.१४८)। दिगम्बरपक्ष स्वयम्भू भी यापनीय नहीं, दिगम्बर ही थे, इसके प्रमाण द्वाविंश अध्याय में द्रष्टव्य हैं। अतः उपर्युक्त हेतु असत्य है । यतः स्वयम्भू दिगम्बर थे, अतः मान्य विदुषी ( श्रीमती पटोरिया) के उपर्युक्त तर्क से रविषेण दिगम्बर ही सिद्ध होते हैं। अ० १९ / प्र० २ मान्य विदुषी का यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है कि स्वयंभू का रविषेण के प्रति आदरपूर्वक कृतज्ञता - ज्ञापन रविषेण को यापनीय मानने के लिए प्रेरित करता है । यदि आदर या सराहना की अभिव्यक्ति के आधार पर किसी लेखक के सम्प्रदाय का निर्धारण किया जाय, तो रविषेण को श्वेताम्बर भी मानना होगा और दिगम्बर भी, क्योंकि श्वेताम्बर उद्योतन सूरि ने भी अपनी कुवलयमाला (विक्रम सं० ८३५) में रविषेण के 'पद्मचरित' तथा जटिलमुनि के 'वरांगचरित' की सराहना की है तथा पुन्नाट - संघी दिगम्बर जिनसेन ने भी हरिवंशपुराण में ऐसा ही किया है । ११ यतः रविषेण को श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों मानना संभव नहीं है, अतः सिद्ध है कि मान्य विदुषी का उक्त हेतु साधारणानैकान्तिक हेत्वाभास है । ११. नाथूराम प्रेमी : जैन साहित्य और इतिहास / द्वि.सं./पृ. ८८ । . सम्प्रदाय-निर्धारण के असाधारणधर्मभूत हेतु तो ग्रन्थ में प्रतिपादित साम्प्रदायिक सिद्धान्त हैं। रविषेण ने पद्मपुराण में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति आदि मान्यताओं का निषेध करनेवाले सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है । यह उन्हें असन्दिग्धरूप से दिगम्बर सिद्ध करता है। इसी हेतु को डॉ० सागरमल जी ने भी विमलसूरिकृत 'पउमचरिय' के श्वेताम्बरग्रन्थ होने का निर्विवाद प्रमाण माना है । कुछ दिगम्बर विद्वानों ने विमलसूरि के 'पउमचरिय' को इस आधार पर दिगम्बरग्रन्थ कहा है कि उसमें श्रेणिक के प्रश्न करने पर गौतम स्वामी ने कथा सुनायी है, जो दिगम्बरपद्धति है । इस पर टिप्पणी करते हुए डॉक्टर सा० लिखते हैं- " मेरी दृष्टि में इस तथ्य को पउमचरियं के दिगम्बरपरम्परा से सम्बद्ध होने का आधार नहीं माना जा सकता, क्योंकि पउमचरियं में स्त्रीमुक्ति आदि ऐसे अनेक ठोस तथ्य हैं, जो श्वेताम्बर - परम्परा के पक्ष में ही जाते हैं।" (जै. ध.या.स./पृ.२०९)। मैं इससे पूर्णत: सहमत हूँ । पद्मपुराण में भी स्त्रीमुक्तिनिषेध आदि ऐसे ठोस तथ्य हैं, जो यापनीय - परम्परा के विरोध में तथा दिगम्बर- परम्परा के पक्ष में जाते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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