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________________ २० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ १. ७. श्वेताम्बरीय मान्यताओं के आगमानुकूल होने का खण्डन अपराजित सूरि ने भगवती आराधना की टीका में अनेक स्थानों पर श्वेताम्बरीय मान्यताओं के युक्ति और आगम के अनुकूल होने का खण्डन किया है। यह इस बात से स्पष्ट है कि ऐसा करने के लिए उन्होंने कई जगह श्वेताम्बर - आगमों से उद्धरण दिये हैं और श्वेताम्बर साधुओं के 'वस्त्रपात्र' आदि उपकरणों का उल्लेख किया है तथा सग्रन्थ होते हुए भी उनके द्वारा अपने को निर्ग्रन्थ कहे जाने पर आक्षेप किया है । यथा १. 'आचेलक्कुद्देसिय' इस गाथा (४२३) की टीका में उन्होंने जो अनेक युक्तियों से सचेललिंग के बहुविध दोषों का विस्तार से उद्घाटन किया है, वह श्वेताम्बर साधुओं केही सचेललिंग के दोषों का उद्घाटन है, क्योंकि उन्होंने ( अपराजितसूरि ने ) श्वेताम्बरों की ओर से सचेललिंग के समर्थन हेतु आचारांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि श्वेताम्बरमान्य आगमों के वचन उद्धृत किये हैं और उनका युक्तिपूर्वक निराकरण कर एकमात्र अचेललिंग को ही मुक्ति का मार्ग सिद्ध किया है । २० २. श्वेताम्बर साधु वस्त्रधारण करते हुए भी अपने को निर्ग्रन्थ कहते हैं । इस पर तीक्ष्ण आक्षेप करते हुए अपराजित सूरि ने कहा है अ० १३ / प्र० १ “चेलपरिवेष्टिताङ्ग आत्मानं निर्ग्रन्थं यो वदेत्तस्य किमपरे पाषण्डिनो न निर्ग्रन्थाः ?” (गा. 'आचेलक्कुद्देसिय' ४२३ / पृ.३२३) । अनुवाद - " वस्त्रधारण करते हुए भी जो स्वयं को निर्ग्रन्थ कहता है, उसके कथन से क्या अन्य सम्प्रदाय के साधु निर्ग्रन्थ सिद्ध नहीं होंगे? अर्थात् उसके मत से तो सभी सम्प्रदायों के साधु निर्ग्रन्थ सिद्ध होते हैं । " ३. श्वेताम्बरग्रन्थों में कहा गया है कि तीर्थंकर अनुपम धृति और प्रथम संहनन आदि अतिशयों के धारी होते हैं, अतः वे जिनकल्प या अचेललिंग ग्रहण करते हैं, किन्तु शिष्य उनके समान नहीं होते, अतः उन्हें तीर्थंकरों के लिंग का अनुकरण नहीं करना चाहिए। तीर्थंकरों ने उनके लिए सचेललिंग ( स्थविरकल्प) का उपदेश दिया है।२१ अपराजित सूरि इससे सहमत नहीं है । अतः उन्होंने निम्नलिखित पंक्तियाँ इस श्वेताम्बरीय मत के ही खण्डन में लिखी हैं "जिनानां प्रतिबिम्बं चेदमचेललिङ्गम् । ते हि मुमुक्षवो मुक्त्युपायज्ञा यद् गृहीतवन्तो लिङ्गं तदेव तदर्थिनां योग्यमित्यभिप्रायः । यो हि यदर्थी विवेकवान् नासौ तदनुपायमादत्ते २०. देखिए, चतुर्दश अध्याय 'अपराजित सूरि : दिगम्बराचार्य ।' २१. देखिए, तृतीय अध्याय का द्वितीय प्रकरण / शीर्षक ९ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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