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________________ १२६ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०१ अपने पहनने-ओढ़ने आदि के वस्त्रों को स्वयं धोने, सीने आदि के कुत्सित कर्म तथा शरीर को सजाने आदि के ममत्वपूर्ण परिकर्म में वस्त्रधारी फंसा रहता है।" __ यहाँ अपराजितसूरि ने सचेलत्व के वे ही दोष बतलाये हैं, जो श्वेताम्बरीय आचारांग (१/६/३/१८२) में बतलाये गये हैं। (देखिए, अध्याय ३/ प्रकरण १। शीर्षक ७)। १.१.१५. लाघव में बाधक-सूरि जी का कथन है कि अचेलत्व साधु को भारमुक्त करता है और सचेलत्व भारग्रस्त "लाघवं च गुणः। अचेलोऽल्पोपधिः स्थानासन-गमनादिकासु क्रियासु वायुवदप्रतिबद्धो लघुर्भवति नेतरः।" (वि.टी./गा. आचेलक्कु'४२३/ पृ.३२३)। अनुवाद-"अचेल पुरुष भारमुक्त हो जाता है। उसके पास अल्प उपधि होती है, अतः वह ठहरने, बैठने, चलने आदि की क्रियाओं में वायु के समान उन्मुक्त एवं भारहीन हो जाता है। सचेल पुरुष इस प्रकार उन्मुक्त और भारमुक्त नहीं हो पाता।" १.१.१६. सचेलत्व तीर्थंकर-मार्गानुसरण में बाधक-अचेलत्व से तीर्थंकरमार्गानुसरण संभव होता है, सचेलत्व से असंभव। इस तथ्य को अपराजितसूरि ने निम्नलिखित वक्तव्य में रेखांकित किया है ___ "तीर्थकराचरितत्वं च गुणः। संहननबलसमग्रा मुक्तिमार्गप्रख्यापनपरा जिनाः सर्व एवाचेला भूता भविष्यन्तश्च। यथा मेर्वादिपर्वतगताः प्रतिमास्तीर्थकरमार्गानुयायिनश्च गणधरा इति तेऽप्यचेलास्तच्छिष्याश्च तथैवेति सिद्धमचेलत्वम्। चेलपरिवेष्टिताङ्गो न जिनसदृशः। व्युत्सृष्टप्रलम्बभुजो निश्चेलो जिनप्रतिरूपतां धत्ते।" (वि.टी./ गा.' आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२३)। अनुवाद-"तीर्थंकरों के मार्ग का अनुसरण अचेलता से ही संभव है। संहनन और बल से परिपूर्ण तथा मोक्षमार्ग का उपदेश देने में तत्पर सभी तीर्थंकर अचेल थे तथा भविष्य में भी अचेल ही होंगे। जैसे मेरु आदि पर्वतों पर विराजमान जिनप्रतिमाएँ अचेल हैं और तीर्थंकरों के मार्ग के अनुयायी गणधर अचेल होते हैं, वैसे ही उनके शिष्य भी उन्हीं की तरह अचेल होते हैं। इस प्रकार अचेलता ही मोक्ष का मार्ग सिद्ध होती है। जिसका शरीर वस्त्र से परिवेष्टित है, वह तीर्थंकर सदृश नहीं होता। जो दोनों भुजाओं को लटकाकर खड़ा होता है और निश्चेल होता है वह 'जिन'सदृश रूप का धारी होता है।" यहाँ अपराजितसूरि ने इस श्वेताम्बरीय मान्यता को अस्वीकार किया है कि तीर्थंकर के शिष्य तीर्थंकरगृहीत अचेललिंग के अधिकारी नहीं हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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