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________________ अ० १४ / प्र०१ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १२५ १.१.१३. अप्रतिलेखना में बाधक-आगे कहा गया है कि अचेलत्व अप्रतिलेखन का हेतु है और सचेलत्व बहुप्रतिलेखन का "अप्रतिलेखनता च गुणः। चतुर्दशविधमुपधिं गृह्णतां बहुप्रतिलेखनता, न तथाचेलस्य। --- तथा ह्याचारप्रणिधौ भणितं-पडिलेखे पात्रकंबलं तु ध्रुवमिति।" (वि.टी./गा. 'आचेलक्कु' ४२३/पृ.३२२-३२३)। __ अनुवाद-"अचेलता प्रतिलेखन (साफ-सफाई या शुद्धीकरण)२ से मुक्त रहने में भी सहायक है। चौदह प्रकार की उपधि रखनेवालों को बहुत प्रतिलेखना करनी पड़ती है। अचेल को वैसी प्रतिलेखना नहीं करनी पड़ती। आचारप्रणिधि में कहा गया है कि पात्र और कम्बल की प्रतिलेखना अवश्य करनी चाहिए।" यहाँ श्वेताम्बर स्थविरकल्पी साधुओं के द्वारा धारण की जानेवाली चौदह प्रकार की उपधि (परिग्रह) का उल्लेख किया गया है। वह इस प्रकार है-चोलपट्टक, मुखवस्त्रिका, रजोहरण, तीन सूती-ऊनी ओढ़ने के वस्त्र, मात्रक (पात्रविशेष) तथा सात प्रकार का पात्रनिर्योग (भिक्षापात्र तथा उससे सम्बन्धित वस्तुएँ)। (देखिए, अध्याय २/ प्रकरण ३ / शीर्षक ३.३.१)। 'आचारप्रणिधि' श्वेताम्बरीय दशवैकालिकसूत्र के आठवें अध्ययन का नाम है। (प्रेमी : जै.सा.इ. /द्वि.सं./पृ.६१)। सचेललिंगी श्वेताम्बर साधु को इन चौदह उपकरणों की प्रतिलेखना करनी पड़ती है, जिससे अत्यधिक जीवहिंसा होती है। यहाँ चौदह प्रकार की उपधि रखने से बहुत प्रतिलेखना की आवश्यकता होने के कथन तथा श्वेताम्बर-आगम 'आचारप्रणिधि' के उल्लेख से सिद्ध है कि भगवती-आराधना की 'आचेलक्कुद्देसिय' गाथा (४२३) की टीका में अपराजितसूरि ने श्वेताम्बर साधुओं के सचेललिंगगत दोषों का प्ररूपण किया है। १.१.१४. परिकर्म से मुक्त होने में बाधक-अचेलत्व साधु को परिकर्म से मुक्त करता है, सचेलत्व उसमें फँसाता है। इस पर प्रकाश डालते हुए टीकाकार कहते हैं "परिकर्मवर्जनं च गुणः। उद्वेष्टनं, मोचनं, सीवनं, बन्धनं, रञ्जनमित्यादिकमने परिकर्म सचेलस्य। स्वस्य वस्त्रप्रावरणादेः स्वयं प्रक्षालनं सीवनं वा कुत्सितं कर्म, विभूषा, मूर्छा च।" (वि.टी. / गा. आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२२-३२३)। अनुवाद-"अचेल व्यक्ति परिकर्म से भी मुक्त रहता है। सचेल को बहुत से परिकर्म करने पड़ते हैं, जैसे वस्त्र को लपेटना, छोड़ना, सीना, बाँधना, रँगना आदि। २. प्रतिलेखना =The regular cleaning of all implements or objects for daily use. (Sir M. Monier Williams : Sanskrit-English Dictionary) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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