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________________ १२४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१४ / प्र०१ . १.१.१०. चित्तविशुद्धि के प्रकट होने में बाधक-सूरि जी का कथन है कि अचेलता से मुनि की निर्विकारता ज्ञापित होती है, सचेलता से उसका ज्ञापन असंभव है "चेतोविशुद्धिप्रकटनं च गुणोऽचेलतायां कौपीनादिना प्रच्छादयतो भावशुद्धिर्न ज्ञायते। निश्चेलस्य तु निर्विकारदेहतया स्फुटा विरागता।" (वि.टी./गा. आचेलक्कु' ४२३/पृ.३२२)। अनुवाद-"अचेलता से चित्त की शुद्धता प्रकट होती है। शरीर को लँगोटी आदि से ढंक लेने पर भावशुद्धि का पता नहीं चलता। नग्नपुरुष के देह की निर्विकारता देखकर विरागता का स्पष्टतः बोध होता है।" तात्पर्य यह कि वस्त्रधारण कामविकार से मुक्त होने में बाधक है, क्योंकि वस्त्रधारी पुरुष मन में उत्पन्न कामविकार की शारीरिक अभिव्यक्ति को वस्त्रों से छिपा सकता है और निर्भय होकर मानसिक कामसेवन का अवसर पा सकता है। १.१.११. निर्भयता में बाधक-अचेलत्व की अभयोत्पादकता और सचेलत्व की भयोत्पादकता को प्रकाशित करते हुए अपराजितसूरि लिखते हैं "निर्भयता च गुणः। ममेदं किमपहरन्ति चौरादयः? किं ताडयन्ति बध्नन्तीति वा? भयमुपैति सचेलो, नाचेलो। भयातुरो वा किं न कुर्यात्?" (वि.टी./गा.' आचेलक्कु' ४२३/ पृ.३२२)। अनुवाद-"अचेलता साधु को निर्भय बना देती है। चोर आदि मेरा क्या हरण कर लेंगे, मुझे किसलिए मारेंगे या बाँधेगे? ऐसा निःशंकभाव उसके मन में आ जाता है। किन्तु सचेल व्यक्ति को भय सताता है और भयातुर क्या नहीं कर सकता?" १.१.१२. विश्रब्धता में बाधक-अचेलता साधु को निःशंक बनाती है और सचेलता सशंक, इस तथ्य की प्रतीति निम्नलिखित शब्दों से करायी गयी है "सर्वत्र विश्रब्धता च गुणः। निष्परिग्रहो न किञ्चनापि शङ्कते। सचेलस्तु प्रतिमार्गयायिनमन्यं वा दृष्ट्वा न तत्र विश्वासं करोति। को वेत्ययं, किं करोति इति।" (वि.टी./गा. 'आचेलक्कु'४२३/पृ.३२२)। ___ अनुवाद-"अचेलता साधु को सबके प्रति विश्रब्ध बना देती है। किसी के भी प्रति कोई सन्देह नहीं होने देती। किन्तु जो सचेल होता है, वह हर राहगीर को या अन्य किसी भी मनुष्य को शंका की दृष्टि से देखता है। यह कौन है? क्या करता है? ऐसी शंकाएँ उसके मन में उठती हैं।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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