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अ०१४ / प्र०१
अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १२३ १.१.७. रागद्वेष से मुक्त होने में बाधक-अचेललिंग से रागद्वेष का परित्याग संभव होता है, सचेललिंग से असंभव, इस सत्य का प्रकाशन इन वचनों में किया गया है
"वीतरागद्वेषता च गुणः। सचेलो हि मनोज्ञे वस्त्रे रक्तो भवति, दुष्यत्यमनोज्ञे। बाह्यद्रव्यालम्बनौ हि रागद्वेषौ। तावसति परिग्रहे न भवतः।"(वि.टी./गा. 'आचेलक्कु' ४२३/पृ.३२२)।
अनुवाद-"अचेलता रागद्वेष से मुक्त होने का भी साधन है। वस्त्रधारण करनेवाला मनुष्य सुन्दर वस्त्रों में अनुरक्त हो जाता है और असुन्दर वस्त्रों से द्वेष करता है, क्योंकि रागद्वेष सदा बाह्य द्रव्य के अवलम्बन से होते हैं। परिग्रह न रहने पर रागद्वेष नहीं होते।"
१.१.८. शरीर के प्रति अनादरभाव में बाधक-अपराजितसूरि कहते हैं कि अचेलमुनि ही शरीर से विरक्त हो सकता है, सचेल नहीं
"किं च शरीरे अनादरो गुणः, शरीरगतादरवशेनैव हि जनोऽसंयमे परिग्रहे च वर्तते। अचेलेन तु तदादरस्त्यक्तः, वातातपादिबाधासहनात्।" (वि.टी./गा. 'आचेलक्कु' ४२३/ पृ.३२२)।
अनुवाद-"अचेलता से शरीर में भी अनादर उत्पन्न होता है। शरीर में आदर होने से ही मनुष्य असंयम और परिग्रह में प्रवृत्त होता है। अचेल रहने से हवा, धूप आदि की बाधाओं को सहने का अभ्यास हो जाता है, जिससे शरीर के प्रति आदरभाव छूट जाता है।"
१.१.९. स्वाधीनता में बाधक-अचेलता मुनि को स्वाधीन बनाती है और सचेलता पराधीन। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य का उद्घाटन अपराजितसूरि ने निम्नलिखित वचनों में किया है
"स्ववशता च गुण: देशान्तरगमनादौ सहायाप्रतीक्षणात्। पिच्छमात्रं गृहीत्वा हि त्यक्त-सकलपरिग्रहः पक्षीव यातीति। सचेलस्तु सहायपरवशः चौरभयात् भवति। परवशमानसश्च कथं संयमं पालयेत्?" (वि.टी./ गा.' आचेलक्कु'४२३/ पृ.३२२)।
अनुवाद-"अचेलता से मनुष्य स्वाधीन हो जाता है, क्योंकि एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने के लिए साथी की प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। सकलपरिग्रह का त्यागी मुनि पिच्छीमात्र ग्रहण करके पक्षी के समान निःशंक होकर चला जाता है। सचेल व्यक्ति तो चोरों के भय से साथी के अधीन हो जाता है। जिसका मन दूसरों के अधीन है, वह संयम का पालन कैसे कर सकता है?"
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