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________________ १२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ० १४ / प्र० १ अनुवाद" अचेलता कषाय को जीतने में सहायक है । वस्त्रधारी को चोरों से भय रहता है, जिससे वह वस्त्र को गोबर आदि से लिप्त कर छिपाने का मायाचार करता है । अथवा चोरों को धोखा देने के लिये मार्ग बदलकर जाने का प्रयत्न करता है या झाड़ी आदि में छिप जाता है। इस तरह वस्त्र माया कषाय की उत्पत्ति का कारण बनता है । 'मेरे पास वस्त्र है' इस प्रकार का मान भी वस्त्र होने पर उत्पन्न होता है। यदि कोई बलपूर्वक वस्त्र छीनता है, तो उसके साथ कलह करनी पड़ती है । वस्त्र प्राप्त होने पर लोभ होता है । वस्त्रग्रहण में इतने दोष हैं । अचेल रहने पर ये दोष उत्पन्न नहीं होते।" १.१.५. ध्यानस्वाध्याय में बाधक - अधोलिखित वचन ध्यान - स्वाध्याय में अचेलत्व की साधकता और सचेलत्व की बाधकता का निरूपण करते हैं 'ध्यानस्वाध्याययोरविघ्नता च । सूचीसूत्रकर्पटादिपरिमार्गणसीवनादिव्याक्षेपेण तयोर्विघ्नो भवति । निःसङ्गस्य तथाभूतव्याक्षेपाभावात् । सूत्रार्थपौरुषीषु निर्विघ्नता, स्वाध्यायस्य ध्यानस्य च भावना । " (वि.टी./गा. 'आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२१) । 44 अनुवाद- -" अचेल रहने से ध्यान और स्वाध्याय निर्विघ्न सम्पन्न होते हैं । सुई, धागा, वस्त्र आदि को खोजने तथा सीलने आदि के काम में लगने से ध्यान और स्वाध्याय में विघ्न होता है । किन्तु जो अचेल होता है, वह इन चित्तविक्षेपकारी कार्यों से मुक्त रहता है, जिससे सूत्रपौरुषी और अर्थपौरुषी में निर्विघ्नता रहती है तथा स्वाध्याय और ध्यान की भावना होती है । " १.१.६. आभ्यन्तरपरिग्रह - त्याग में बाधक - अचेल मुनि आभ्यन्तर परिग्रह के त्याग में समर्थ होता है, सचेल मुनि असमर्थ, इस तथ्य को प्रकट करते हुए अपराजितसूरि कहते हैं "" ' ग्रन्थत्यागश्च गुणः । बाह्यचेलादिग्रन्थत्यागोऽभ्यन्तरपरिग्रहत्यागमूलः यथा तुषनिराकरणमभ्यन्तरमलनिरासोपायः ।" (वि.टी./गा. 'आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२१-३२२) । अनुवाद- -" आभ्यन्तरपरिग्रह के त्याग का साधन होना भी अचेलता का एक गुण है। जैसे धान के छिलके को दूर करना उसके आभ्यन्तर मैल को दूर करने का उपाय है, वैसे ही वस्त्रादि - बाह्यपरिग्रह का त्याग आभ्यन्तरपरिग्रह के त्याग का मूल है।" इसका तात्पर्य यह है कि वस्त्रादि- बाह्यपरिग्रह का त्याग न होने पर आभ्यन्तरपरिग्रह का त्याग असंभव है । इस तरह सचेलत्व आभ्यन्तरपरिग्रह के त्याग में बाधक है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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