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________________ अ० १४ / प्र० १ अपराजितसूरि : दिगम्बर आचार्य / १२१ त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं । वस्त्रधारण करने से उनको बाधा होती है और शरीर से वस्त्र को अलग कर देने से वे जीव मर जाते हैं, इसलिए हिंसा होती हैं । जीवसंसक्त वस्त्र को धारण करनेवाला जब उठता है, बैठता है, सोता है, वस्त्र को फाड़ता है, काटता है, बाँधता है, लपेटता है, धोता है, कूटता है और धूप में सुखाता है, तब जीवों को पीड़ा होती है, जिससे महान् असंयम होता है। जो अचेल होता है, वह ऐसे असंयम से बच जाता है, अतः उसके संयम की शुद्धि होती है । " १.१.३. इन्द्रियविजय में बाधक - इन्द्रियविजय में अचेलत्व की साधकता और सचेलत्व की बाधकता के मनोवैज्ञानिक हेतु का उद्घाटन करते हुए सूरि जी कहते हैं " इन्द्रियविजयो द्वितीयः । सर्पाकुले वने विद्यामन्त्रादिरहितो यथा पुमान् दृढप्रयत्नो भवति एवमिन्द्रियनियमने अचेलोऽपि प्रयतते । अन्यथा शरीरविकारो लज्जनीयो भवेदिति । " (वि.टी./गा.' आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२१) । अनुवाद- " अचेलत्व इन्द्रियजय के लिए सचेष्ट करता है। जैसे सर्पों से भरे जंगल में विद्या-मन्त्रादि से रहित पुरुष बड़ी सावधानी से चलता है, वैसे ही अचेल मुनि इन्द्रियों को नियन्त्रित करने का दृढ़ता से प्रयत्न करता है । अन्यथा शरीर में विकार उत्पन्न हो जाने पर लज्जित होने की नौबत आ सकती है। " अपराजितसूरि ने इस मनोवैज्ञानिक तथ्य पर प्रकाश डाला है कि वस्त्रधारण करने से मुनि को अपने कामविकार को छिपाने का मौका मिल जाता है, इसलिए उसे जीतने के अभ्यास में प्रवृत्त नहीं होता, बल्कि वह शरीर में कामविकार की अभिव्यक्ति से निर्भय हो जाता है और स्वच्छन्दतापूर्वक मानसिक कामभोग करता है, जो द्रव्य -ब्रह्मचर्य के लिये भी घातक बन जाता है। इस तरह सचेलत्व इन्द्रियजय में बाधक है। १.१.४. कषायविजय में बाधक - - अचेलता साधु को कषायविजय के योग्य बनाती है, सचेलता अयोग्य इस सत्य का प्रकाशन निम्नलिखित वक्तव्य में किया गया है— " कषायाभावश्च गुणोऽचेलतायाः । स्तेनभयाद् गोमयादिरसेन लेपं कुर्वन्निगूहयित्वा कथञ्चिन्मायां करोति । उन्मार्गेण वा स्तेनवञ्चनां कर्त्तुं यायात् । गुल्मवल्ल्या - द्यन्तर्हितो वा स्यात् । चेलादिर्ममास्तीति मानं चोद्वहते। बलादपहरणात्तेन सह कलहं कुर्यात् । लाभाद्वा लोभः प्रवर्तत इति चेलग्राहिणाममी दोषाः । अचेलतायां पुनरित्थम्भूतदोषानुत्पत्तिः।” (वि.टी./गा. 'आचेलक्कु' ४२३ / पृ.३२१) । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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