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________________ ७७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ ९ 'देशयति' शब्द देशव्रती या श्रावक का ही पर्यायवाची यापनीयपक्ष उक्त ग्रन्थलेखक का कथन है कि "छेदपिण्ड' ग्रन्थ की गाथा ३०३ में स्पष्टरूप से कहा गया है कि 'देशयति को संयत के प्रायश्चित्त का आधा देना चाहिए।' इससे यह प्रतीत होता है कि यह परम्परा एलक, क्षुल्लक आदि को उत्कृष्ट श्रावक न मानकर श्रमणवर्ग के अन्तर्गत ही रखती थी। जबकि मूलसंघीय परम्परा परिग्रह रखनेवाले व्यक्ति को श्रावक की अवस्था से ऊपर नहीं मानती है। यापनीयपरम्परा में आचारांग का सन्दर्भ देकर श्रमणों के दो विभाग किये गये हैं- सर्वश्रमण और नोसर्व श्रमण | नोसर्वश्रमण को ही शब्दभेद से इस ग्रन्थ में देशयति माना गया है। दिगम्बरपरम्परा में प्रचलित क्षुल्लक शब्द भी इसी का वाचक है। क्षुल्लक या देशयति को श्रावक कहना मात्र आग्रहबुद्धि का परिचायक है।" (जै. ध. या. स. / पृ. १५० - १९५१) । दिगम्बरपक्ष अ० २४ १. 'छेदपिण्ड' की ३०३ क्रमांकवाली गाथा में 'देशयति' शब्द श्रावक के ही अर्थ में प्रयुक्त है, श्रमण के अर्थ में नहीं, यह उक्त गाथा और उसकी उत्तरवर्ती गाथाओं के विवरण से स्पष्ट हो जाता है । सम्पूर्ण गाथा इस प्रकार है— दोहं तिहं छण्हं मुवरिमुक्कस्समज्झिमिदराणं । देसजदीणं छेदो विरदाणं अद्धद्धपरिमाणं ॥ ३०३ ॥ संस्कृत छाया द्वयोः त्रयाणां षण्णाम् उपरि उत्कृष्टयो: मध्यमानामितरेषाम् । देशयतीनां छेदो विरतानाम् अर्धार्धपरिमाणः ॥ ३०३ ॥ अन्वयः - द्वयोः उत्कृष्टयोः त्रयाणाम् मध्यमानाम् उपरि ( एतदतिरिक्तं ) षण्णाम् इतरेषाम् देशयतीनां छेदः विरतानां अर्धार्धपरिमाण: ( अर्धार्धक्रमेण दातव्य: ) । अनुवाद – “दो उत्कृष्ट देशयतियों (देशव्रतियों = १०,११ प्रतिमाधारी श्रावकों ) को मुनियों की अपेक्षा आधा, तीन मध्यम देशयतियों (देशव्रतियों = ७, ८, ९ प्रतिमाधारी श्रावकों) को उत्कृष्ट देशयतियों का आधा और छह जघन्य देशयतियों (देशव्रतियों = १ से ६ प्रतिमाधारी जघन्य श्रावकों) को मध्यम देशयतियों का आधा प्रायश्चित्त देना चाहिए । Jain Education International इस प्रकार उक्त गाथा में देशयति शब्द का प्रयोग उत्तम, मध्यम और जघन्य तीनों प्रकार के अर्थात् सभी ग्यारह प्रकार के श्रावकों के लिए 'देशव्रती' के पर्यायवाची For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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