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________________ अ० २४ छेदपिण्ड, छेदशास्त्र एवं प्रतिक्रमण-ग्रन्थत्रयी / ७७१ अस्तित्व दिगम्बर - परम्परा में रहा है। इनमें से कुछ वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं, यह अन्य बात है । मूलाचार, भगवती - आराधना और उसकी विजयोदयाटीका में भी कल्पव्यवहार, जीतकल्प आदि ग्रन्थों के नाम मिलते हैं, तथापि वे (मूलाचार, भगवती - आराधना आदि) न तो यापनीयग्रन्थ हैं, न श्वेताम्बरीय, अपितु शत-प्रतिशत दिगम्बरग्रन्थ हैं, यह उन ग्रन्थों के अध्यायों में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। इसी प्रकार 'छेदपिण्ड' भी उक्त ग्रन्थों के उल्लेख से यापनीयग्रन्थ सिद्ध नहीं होता, अपितु मुनियों के यापनीयपरम्परा-विरुद्ध एवं दिगम्बर - परम्परासम्मत २८ मूलगुणों का प्रतिपादन करने से दिगम्बरग्रन्थ ही सिद्ध होता है । ८ Jain Education International छेदपिण्ड 'मूलाचार' आदि दिगम्बरग्रन्थों की परम्परा का यापनीयपक्ष "छेदपिण्ड - प्रायश्चित्त' (छेदपिण्ड) की गाथा १७४ और 'मूलाचार' (आर्यिका ज्ञानमती जी द्वारा सम्पादित) की गाथा ३६२ में विचारगत ही नहीं, शब्दगत समानता भी है। ये दोनों ग्रन्थ श्वेताम्बर - परम्परा के पाराञ्चिक प्रायश्चित्त के स्थान पर 'श्रद्धान' का उल्लेख करते हैं। इस प्रकार छेदपिण्ड और मूलाचार दोनों की परम्परा समान प्रतीत होती है |--- चूँकि मूलाचार यापनीय - परम्परा का ग्रन्थ है, यह सिद्ध ही है, अतः इसके आधार पर यह अनुमान किया जा सकता है कि यह छेदपिण्ड - प्रायश्चित्त ग्रन्थ भी यापनीय - परम्परा का रहा होगा ।" (जै. ध. या.स./ पृ. १५१ ) । - - - इसमें मूलगुणों और भोजन के अन्तरायों के जो उल्लेख हैं, वे इसे मूलाचार और भगवती आराधना की परम्परा का ही ग्रन्थ सिद्ध करते हैं। अतः इसका यापनीय - कृति होना सुनिश्चित है। (जै. ध. या. स. / पृ. १५३) । दिगम्बरपक्ष इस कथन में ग्रन्थलेखक ने 'छेदपिण्ड' या 'छेदपिण्ड - प्रायश्चित्त' को मूलाचार और भगवती-अ - आराधना की परम्परा का ग्रन्थ सिद्ध किया है। इस तरह उनकी ही लेखनी सिद्ध कर देती है कि 'छेदपिण्ड' दिगम्बर- परम्परा का ही ग्रन्थ है, क्योंकि मूलाचार और भगवती - आराधना यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बराचार्यों की कृतियाँ है, यह पूर्व में सप्रमाण सिद्ध किया जा चुका है। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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