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७७० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ० २४ हालत में सिद्ध नहीं होते, क्योंकि दिगम्बर आचार्य नेमिचन्द्र का एक जैनाभासी (मिथ्यादृष्टि) को नमस्कार करना कभी भी संभव नहीं है।
वस्तुतः कोई भी इन्द्रनन्दी छेदपिण्ड के कर्ता हों, पर वे यापनीय नहीं हो सकते, क्योंकि छेदपिण्ड में मुनि के जिन २८ मूलगुणों का वर्णन है, वे यापनीय और श्वेताम्बर मतों के विरुद्ध हैं, केवल दिगम्बरमतानुरूप हैं।
श्वेतपट श्रमणों का पाषण्डरूप में उल्लेख 'छेदपिण्ड' की २८वीं गाथा में भागवतों, कापालिकों आदि के साथ श्वेतपटश्रमणों का भी पाषण्ड (मिथ्याधर्म-प्ररूपक) के रूप में उल्लेख है। यह बात 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' ग्रन्थ के कर्ता ने भी स्वीकार की है। (पृ.१५३)। अतः उसका यापनीयग्रन्थ होना असंभव है, क्योंकि यापनीय श्वेताम्बर-आगमों के अनुयायी थे और जिस परम्परा के आगमों को प्रमाण मानते थे, उसी परम्परा के श्रमणों को वे पाषण्ड के रूप में वर्णित नहीं कर सकते थे।
'कल्पव्यवहार' आदि ग्रन्थ दिगम्बरपरम्परा में भी यापनीयपक्ष
छेदपिण्ड में अनेक स्थलों पर कल्पव्यवहार का निर्देश है। इस श्वेताम्बरीयग्रन्थ के अनुसरण से सिद्ध है कि छेदपिण्ड यापनीयकृति है। (जै.ध.या.स./१५२) दिगम्बरपक्ष
'छेदपिण्ड' में जिस 'कल्पव्यवहार' ग्रन्थ का उल्लेख है, वह श्वेताम्बरीय ग्रन्थ नहीं है, अपितु तन्नामक दिगम्बरग्रन्थ ही है, क्योंकि जिन श्वेतपटश्रमणों को 'छेदपिण्ड' ग्रन्थ में पाषण्ड संज्ञा दी गई हो, उन्हीं श्रमणों को मान्य ग्रन्थों से किसी भी सामग्री का ग्रहण किया जाना संभव नहीं है। दिगम्बर-परम्परा अंगप्रविष्ट श्रुत का विच्छेद मानती है, अंगबाह्य का नहीं। कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, प्रतिक्रमण आदि ग्रन्थ अंगबाह्यश्रुत के अन्तर्गत हैं, जिनका उल्लेख दिगम्बरग्रन्थों में भी है।६ अतः उनका
५. सेवडय-भगववंदग-कावालिय-भोयपमुह-पासंडा।
जदि संजदस्स कस्स वि उवरि विवादादिहेदूहिं॥ २८॥ छेदपिण्ड।
(प्रायश्चित्तसंग्रह / माणिकचन्द्र दि. जैन ग्रन्थमाला/आषाढ़, वि.सं.१९७८ में संगृहीत)। ६. देखिये, धवला/ ष.ख./ पु.१/१,१,२/ पृ.९७ एवं तत्त्वार्थवृत्ति १/२० / पृ. ६७ ।
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