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________________ ६०० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र०४ चुनाँचे मूलाचार (अ०५) में 'रत्तवडचरग-तावसपरिहत्तादीय अण्णपासंडा' वाक्य के द्वारा रक्तपटादिक साधुओं को अन्यमत के पाखण्डी बतलाया है, जिससे साफ ध्वनित है कि तब स्वमत (जैनों) के तपस्वी साधु भी 'पाखण्डी' कहलाते थे। और इसका समर्थन कुन्दकुन्दाचार्य के समयसार ग्रन्थ की 'पाखंडीलिंगाणि य गिहलिंगाणि व बहुप्पयाराणि' इत्यादि गाथा नं० ४०८ आदि से भी होता है, जिनमें पाखंडीलिंग को अनगार-साधुओं (निर्ग्रन्थादि मुनियों) का लिंग बतलाया है। परन्तु पाखण्डी शब्द के अर्थ की यह स्थिति आज से कोई दशों शताब्दियों पहले से बदल चुकी है। और तब से यह शब्द प्रायः धूर्त अथवा दम्भी-कपटी जैसे विकृत अर्थ में व्यहत होता आ रहा है। इस अर्थ का रत्नकरण्ड के उक्त पद्य में प्रयुक्त हुए पाखण्डिन् शब्द के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। यहाँ 'पाखण्डी' शब्द के प्रयोग को यदि धूर्त, दम्भी, कपटी अथवा झूठे (मिथ्यादृष्टि) साधु जैसे अर्थ में लिया जाय, जैसा कि कुछ अनुवादकों ने भ्रमवश आधुनिक दृष्टि से ले लिया है, तो अर्थ का अनर्थ हो जाय और पाखण्डिमोहनम् पद में पड़ा हुआ 'पाखण्डिन्' शब्द अनर्थक और असम्बद्ध ठहरे। क्योंकि इस पद का अर्थ है-'पाखण्डियों के विषय में मूढ होना' अर्थात् पाखण्डी के वास्तविक ४० स्वरूप को न समझकर अपाखण्डियों अथवा पाखण्ड्याभासों को पाखण्डी मान लेना और वैसा मानकर उनके साथ तद्रूप आदर-सत्कार का व्यवहार करना। इस पद का विन्यास ग्रन्थ में पहले से प्रयुक्त देवतामूढम् पद के समान ही है, जिसका आशय है कि 'जो देवता नहीं हैं-रागद्वेष से मलीन देवताभास हैं, उन्हें देवता समझना और वैसा समझकर उनकी उपासना करना। ऐसी हालत में 'पाखंडिन्' शब्द का अर्थ 'धूर्त' जैसा करने पर इस पद का ऐसा अर्थ हो जाता है कि 'धूर्तों के विषय में मूढ़ होना अर्थात् जो धूर्त नहीं हैं, उन्हें धूर्त समझना और वैसा समझकर उनके साथ आदर-सत्कार का व्यवहार करना' और यह अर्थ किसी तरह भी संगत नहीं कहा जा सकता। अतः रत्नकरण्ड में 'पाखंडिन्' शब्द अपने मूल पुरातन अर्थ में ही व्यवहृत हुआ है, इसमें जरा भी सन्देह के लिये स्थान नहीं है। इस अर्थ की विकृति विक्रम सं० ७३४ से पहले हो चुकी थी और वह धूर्त जैसे अर्थ में व्यवहृत होने लगा था, इसका पता उक्त संवत् अथवा वीरनिर्वाण सं० १२०४ में बनकर समाप्त हुए श्रीरविषेणाचार्यकृत पद्मचरित के निम्न वाक्य से चलता है, जिसमें भरत चक्रवर्ती के १४०. पाखण्डी का वास्तविक स्वरूप वही है, जिसे ग्रन्थकार महोदय ने 'तपस्वी' के निम्न लक्षण में समाविष्ट किया है। ऐसे ही तपस्वी साधु पापों का खण्डन करने में समर्थ होते हैं विषयाशा-वशाऽतीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः। ज्ञान-ध्यान-तपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते॥ १०॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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