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________________ अ०१८ / प्र०४ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ६०१ प्रति यह कहा गया है कि जिन ब्राह्मणों की सृष्टि आपने की है, वे वर्द्धमान जिनेन्द्र के निर्वाण के बाद कलियुग में महा-उद्धत पाखंडी हो जायेंगे। और अगले पद्य में उन्हें सदा पापक्रियोद्यताः विशेषण भी दिया गया है वर्द्धमानजिनस्याऽन्ते भविष्यन्ति कलौ युगे। ते ये भवता सृष्टाः पाखण्डिनो महोद्धताः॥ ४/११६॥ "ऐसी हालत में रत्नकरण्ड की रचना उन विद्यानन्द आचार्य के बाद की नहीं हो सकती, जिनका समय प्रो० साहब ने ई० सन् ८१६ (वि. संवत् ८७३) के लगभग बतलाया है। "ख-रत्नकरण्ड में एक पद्य निम्न प्रकार से पाया जाता है गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठे व्रतानि परिगृह्य। भैक्ष्याऽशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्चेल-खण्ड-धरः॥ १४७॥ "इसमें ११वीं प्रतिमा (कक्षा)-स्थित उत्कृष्ट श्रावक का स्वरूप बतलाते हुए, घर से मुनिवन को जाकर गुरु के निकट व्रतों को ग्रहण करने की जो बात कही गई है, उससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि यह ग्रन्थ उस समय बना है, जब कि जैन मुनिजन आमतौर पर वनों में रहा करते थे, वनों में ही यत्याश्रम प्रतिष्ठित थे और वहीं जाकर गुरु (आचार्य) के पास उत्कृष्ट श्रावकपद की दीक्षा ली जाती थी। और यह स्थिति उस समय की है जब कि चैत्यवास (मन्दिर मठों में मुनियों का आमतौर पर निवास) प्रारम्भ नहीं हुआ था। चैत्यवास विक्रम की ४ थी, ५वीं शताब्दी में प्रतिष्ठित हो चुका था, यद्यपि उसका प्रारम्भ उससे भी कुछ पहले हुआ था, ऐसा तद्विषयक इतिहास से जाना जाता है। पं० नाथूराम जी प्रेमी के 'वनवासी और चैत्यवासी सम्प्रदाय' नामक निबन्ध से भी इस विषय पर कितना ही प्रकाश पड़ता है।०१ और इसलिये भी रत्नकरण्ड की रचना विद्यानन्द आचार्य के बाद की नहीं हो सकती और न उस रत्नमालाकार के समसामयिक अथवा उसके गुरु की कृति हो सकती है, जो स्पष्ट शब्दों में जैन मुनियों के लिये वनवास का निषेध कर रहा है, उसे उत्तम मुनियों के द्वारा वर्जित बतला रहा है, और चैत्यवास का खुला पोषण कर रहा है।४२ वह तो उन्हीं स्वामी समन्तभद्र की कृति होनी चाहिए जो प्रसिद्ध वनवासी थे, जिन्हें प्रोफेसर साहब ने श्वेताम्बर पट्टावलियों के आधार पर 'वनवासी' गच्छ अथवा सङ्घ के प्रस्थापक सामन्तभद्र लिखा है, जिनका श्वेताम्बरमान्य १४१. जैन साहित्य और इतिहास / प्रथम संस्करण / पृ. ३४७ से ३६९। १२. कलौ काले वने वासो वय॑ते मुनिसत्तमैः। स्थीयते च जिनागारे ग्रामादिषु विशेषतः॥ २२॥ रत्नमाला। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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