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________________ ५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१३ / प्र० १ किन्तु अपवाद में गीतार्थ साधु संखड़ी आदि में जाकर मांस का ग्रहण कर सकते हैं ( निशीथ, गाथा ३४८७) । रोगी के लिए चोरी से या मन्त्रप्रयोग करके, वशीकरण से भी अभीप्सित औषधि प्राप्त करना अपवादमार्ग में उचित माना गया है (निशीथ, गाथा ३४७)। औषधि में हंसतेल जैसी वस्तु लेना भी, जो मांस से भी अधिक पापजनक है, और वह भी आवश्यकता पड़ने पर चोरी या वशीकरण के द्वारा, अपवादमार्ग में शामिल है । ६३ चूर्णिकार ने हंसतेल बनाने की विधि का जो उल्लेख किया है, उसे पढ़कर तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हंस को चीरकर, मलमूत्र निकालकर, अनन्तर उसके पेट को कुछ वस्तुएँ भरकर सी लिया जाता है और फिर पकाकर जो तेल तैयार किया जाता है, वह हंसतेल है ( निशीथ, गा. ३४८ की चूर्णि ) । ६४ 1 यह दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में अहिंसामहाव्रत, आहारशुद्धि और संयम की दृष्टि से महान् भेद होने का प्रमाण है । यह एक गम्भीर चारित्रिक अन्तर है, जो दोनों परम्पराओं की बुनियाद तक जाता है । जैसा कि प्रसिद्ध है, यापनीयमत के अनुयायी श्वेताम्बर-आगमों को प्रमाणरूप में स्वीकार करते थे, इससे सूचित होता है कि उनके मत में भी भिक्षु भिक्षुणियों को अपवादमार्ग के रूप में मद्य, मांस और मधु के भक्षण की अनुमति थी । इस तरह हम देखते हैं कि भगवती आराधना का यापनीयमत से कितना गम्भीर सैद्धान्तिक मतभेद है ! जहाँ यापनीयमत भिक्षु - भिक्षुणियों के लिए मद्य, मांस, मधु जैसे सर्वथा अभक्ष्य पदार्थों के भक्षण की अपवादरूप से अनुमति देता हैं, वहाँ भगवती-आराधना में इनके भक्षण का तो क्या, इनसे छुए हुए भक्ष्य पदार्थों के भी भक्षण का निषेध किया गया है। अपवादरूप से भी इनका भक्षण वर्जित है। यापनीयमत से यह गम्भीर मतभेद भगवती - आराधना के यापनीयग्रन्थ न होने का प्रबल प्रमाण है। १२ अभिग्रहविधान भगवती - आराधना में मुनि के भिक्षार्थ निकलते समय अनेक प्रकार के वृत्तिपरिसंख्यान या अभिग्रहों का विधान किया गया है। मुनि को इस तरह प्रतिज्ञा करनी होती है कि " जिस मार्ग से पहले गया था, उसी से लौटते हुए भिक्षा मिलेगी, तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। सीधे मार्ग से जाने पर मिली, तो ग्रहण करूँगा, अन्यथा नहीं। (गा‘गत्तापच्चा' २२० ) । एक ही अन्न की या दो अन्नों की भिक्षा ग्रहण करूँगा, अधिक की नहीं। एक दाता के ही द्वारा या दो दाताओं के ही द्वारा दिये जाने पर ६३. निशीथ / गाथा ३४८ / गा. चूर्णि ५७२२ । ६४. निशीथ : एक अध्ययन (निशीथसूत्र पीठिका) / पृष्ठ ६४ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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