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________________ ४६४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१७ / प्र०२ उपलब्ध हैं, जिनका वर्णन आरंभ में किया गया है। अतः उनसे स्थापित होता है कि तिलोयपण्णत्ती दिगम्बरग्रन्थ है। उपसंहार तिलोयपण्णत्ती के दिगम्बराचार्यकृत होने के प्रमाण सूत्ररूप में अन्त में उन प्रमाणों को सूत्ररूप में संकलित किया जा रहा है, जिनसे प्रत्यक्षतः सिद्ध होता है कि तिलोयपण्णत्ती दिगम्बराचार्यकृत ग्रन्थ है। वे इस प्रकार हैं १. तिलोयपण्णत्ती में सवस्त्रमुक्ति, स्त्रीमुक्ति, गृहस्थमुक्ति, अन्यलिंगिमुक्ति और केवलिभुक्ति का निषेध किया गया है, जो यापनीयमत के प्रमुख सिद्धान्त हैं। २. तिलोयपण्णत्ती में २८ मूलगुणों का विधान है। यह भी यापनीयमत के विरुद्ध ३. उसमें मोक्षमार्ग को चतुर्दश-गुणस्थानात्मक बतलाया गया है, जिसे श्वेताम्बर और यापनीय नहीं मानते। ४. तिलोयपण्णत्ती में स्त्रियों के पूर्वधर होने का निषेध है। ५. तिलोयपण्णत्ती में मल्लिनाथ के साथ स्त्रीदीक्षा का उल्लेख नहीं है, तथा मल्लिनाथ का अवतार अपराजित स्वर्ग से बतलाया गया है, जयन्त स्वर्ग से नहीं। यह यापनीयमत के विरुद्ध है। ६. समस्त तीर्थंकरों के तीर्थ में केवल मुनियों के मोक्ष का कथन है। ७. हुण्डावसर्पिणी के दोषों में स्त्रीतीर्थंकर के होने का उल्लेख नहीं है। ८. तिलोयपण्णत्ती में चौदहपूर्वधारियों की परम्परा दिगम्बरमतानुसार दी गयी है। ९. उसमें आगमों के विच्छेद का कथन है, जब कि श्वेताम्बर और यापनीय आगमों का विच्छेद नहीं मानते। १०. तिलोयपण्णत्ती में कल्पों (स्वर्गों) की संख्या सोलह और बारह दोनों मानी गयी है। श्वेताम्बर और यापनीय केवल बारह मानते हैं। ११. तिलोयपण्णत्ती में अनुदिश नामक नौ स्वर्गों का भी अस्तित्व स्वीकार किया गया है, जबकि श्वेताम्बर और यापनीय स्वीकार नहीं करते। १२. तिलोयपण्णत्ती में भौगोलिक वर्णन जिनभद्रगणि-क्षमाश्रमण रचित श्वेताम्बरग्रन्थ बृहत्क्षेत्रसमास से भिन्न है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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