SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 521
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तिलोयपण्णत्ती / ४६५ अ०१७ / प्र० २ १३. अन्तरद्वीपों की संख्या ९६ मानी गयी है, जो श्वेताम्बरमत से भिन्न है । १४. काल को स्वतंत्र द्रव्य माना गया है, श्वेताम्बर और यापनीय ऐसा नहीं मानते। १५. तिलोयपण्णत्ती में तीर्थंकरों का उपदेश ऐसी भाषा में होने का वर्णन है जो अठारह महाभाषाओं और सात सौ क्षुद्र भाषाओं में परिणत हो जाती है । यापनीयमान्य श्वेताम्बर - आगम केवल अर्धमागधी को दिव्योपदेश की भाषा मानते हैं । १६. चामरप्रतिहार्य में चामरों की बहुलता का उल्लेख है, जब कि श्वेताम्बरग्रन्थों में केवल दो चामर माने गये हैं । १७. तिलोयपण्णत्ती में केवलज्ञान के ग्यारह अतिशयों में भगवान् के आकशगमन का कथन है, जिसे श्वेताम्बर और यापनीय नहीं मानते । १८. तिलोयपण्णत्ती में कुन्दकुन्द के अध्यात्मवाद का अनुसरण किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy