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________________ ६४० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१९ / प्र०१ यापनीय न होने का सबूत है। गृहस्थ की मुक्तियोग्यता का निषेध उन्होंने पद्मपुराण (भाग २) के निम्नलिखित वाक्यों में किया है कामक्रोधादिपूर्णस्य का मुक्तिर्गृहसेविनः॥ ३१ / १३५॥ अनुवाद-"कामक्रोधादि से पूर्ण गृहस्थ की मुक्ति कैसे हो सकती है?" गृहधर्मेण तस्मिन् हि मुक्त्यभावः सुनिश्चितः॥ ३१ / १३७॥ अनुवाद- "गृहस्थाश्रम से मुक्ति का अभाव सुनिश्चित है।" गृहस्थधर्म को पद्मपुराण (भाग ३) में परम्परया मोक्ष का हेतु बतलाया गया है, साक्षात् नहीं। साक्षात् हेतु मुनिधर्म को ही कहा गया है अणुधर्मोऽग्रधर्मश्च श्रेयसः पदवी द्वयी। पारम्पर्येण तत्राद्या परा साक्षात्प्रकीर्तिता ॥ ८५/१८॥ गृहाश्रमविधिः पूर्वः महाविस्तारसङ्गतः। परो निर्ग्रन्थशूराणां कीर्तितोऽत्यन्तदुःसहः॥ ८५ /१९॥ अनुवाद-"मोक्ष के दो मार्ग हैं : अणुधर्म और पूर्णधर्म। पहला परम्परया मोक्ष का कारण है, दूसरा साक्षात्। पहला अणुधर्म बहुत विस्तृत है, वह गृहस्थाश्रम में होता है। दूसरा महाधर्म अत्यन्त कठिन है, वह महाशूर निर्ग्रन्थ साधुओं के ही होता आपवादिक सवस्त्रमुक्ति की तरह गृहस्थमुक्ति की मान्यता भी यापनीयमत का आधारभूत सिद्धान्त है। इसका पद्मपुराण में स्पष्ट शब्दों में निषेध किया गया है। इससे सिद्ध है कि वह यापनीयग्रन्थ नहीं है, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। परतीर्थिकमुक्तिनिषेध जैनेतरलिंग अर्थात् परशासन से मुक्ति मानना भी यापनीयों का मौलिक सिद्धान्त है। रविषेण ने इसका निषेध इन खुले शब्दों में किया है जिनेन्द्रशासनादन्यशासने रघुनन्दन। न सर्वयत्नयोगेऽपि विद्यते कर्मणां क्षयः॥ १०५ / २०४॥ पद्मपुराण / भाग ३। अनुवाद-“हे रघुनन्दन! जिनेन्द्रशासन को छोड़कर अन्य शासन से मोक्ष की प्राप्ति समस्त यत्न करने पर भी नहीं होती।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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