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________________ अ० १९ / प्र० १ रविषेणकृत पद्मपुराण / ६४१ केवल यह एकवाक्य रविषेण को यापनीय सिद्ध करने की चेष्टा को कुचेष्टा सिद्ध कर देता है। ५ स्त्रीमुक्तिनिषेध पूर्व ( शीर्षक १ एवं ३) में आचार्य रविषेण के ये शब्द उद्धृत किये गये हैं कि “चारित्र दो प्रकार का है : सागार और निरगार । सागारचारित्र गृहस्थों का है और निरगार दिगम्बरों का।" (प.पु/भा.२/३३ / १२१ ) । उनका दूसरा यह कथन भी उद्धृत किया गया है कि "मोक्ष के दो मार्ग हैं : अणुधर्म और पूर्णधर्म । अणुधर्म के स्वामी गृहस्थ होते हैं और पूर्णधर्म के निर्ग्रन्थशूर।” (प.पु. / भा.३/८५/१८-१९) । रविषेण ने इन दो वचनों के द्वारा स्पष्ट कर दिया है कि यतः स्त्रियाँ दिगम्बर या निर्ग्रन्थ नहीं हो सकतीं, अतः उनके निरगारचारित्र या पूर्णधर्म संभव नहीं हैं, इसलिए वे मुक्ति के योग्य नहीं हैं । "" रविषेण ने पद्मपुराण (भाग ३) में वर्णन किया है कि आर्यिका सीता सदा सोचती रहती थीं कि स्त्रीपर्याय अत्यन्त निन्दनीय है- " अत्यन्तनिन्दितं स्त्रीत्वं चिन्तयन्ती सती सदा' (१०९ / ८) । वे इसे इतना दुःखद और आत्महित में बाधक समझती हैं कि राम से कहती हैं- "हे बलदेव ! मैंने आपके प्रसाद से देवोपम भोग भोगे हैं, अब उनकी इच्छा नहीं है। अब तो मैं वह काम करूँगी, जिससे फिर स्त्री न होना पड़े - " अधुना तदहं कुर्वे जाये स्त्री न यतः पुनः " ( १०५ / ७३) । अर्थात् वे पुरुषपर्याय प्राप्त करना चाहती हैं और इसके लिए वे आर्यिकादीक्षा ग्रहण करती हैं— "संवृत्ता श्रमणा साध्वी वस्त्रमात्रपरिग्रहा" (१०५/७९) । अर्थात् आचार्य रविषेण आर्यिका - दीक्षा को पुरुषपर्याय - प्राप्ति का साधन मानते हैं, मोक्ष का नहीं। वे वर्णन करते हैं कि सीता बासठ वर्ष तक उत्कृष्ट तप कर तथा तैंतीस दिन की उत्तम सल्लेखना धारण कर उपभुक्त बिस्तर के समान शरीर को छोड़कर आरण- अच्युत - युगल में प्रतीन्द्रपद को प्राप्त हुईं। ( १०९ / १७ - १८ ) । वे गौतम स्वामी के मुख से कहलवाते हैं कि अहो ! जिनशासन में धर्म का माहात्म्य देखो कि यह जीव स्त्रीपर्याय को छोड़कर देवों का स्वामी पुरुष हो गया Jain Education International माहात्म्यं पश्यतेदृक्षं धर्मस्य जिनशासने । जन्तुः स्त्रीत्वं यदुज्झित्वा पुमान् जातः सुरप्रभुः ॥ १०९ / १९ ॥ सीता के आरणाच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र बन जाने के बाद श्रीराम दिगम्बरदीक्षा ग्रहणकर तप करते हैं और उसी भव में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है । तब अच्युतेन्द्र पद को प्राप्त सीता का जीव सीतेन्द्र केवली भगवान् श्रीराम (पद्मनाभ) के पास जाकर For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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