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________________ ६४२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१९ /प्र०१ अपनी भावी पर्याय के बारे में पूछता है। केवली श्रीराम सीतेन्द्र को बतलाते हैं कि "तुम आरणाच्युत कल्प से च्युत होकर इस भरतक्षेत्र के रत्नस्थलपुर नामक नगर में चक्ररथ नामक चक्रवर्ती होगे। रावण और लक्ष्मण के जीव तुम्हारे इन्द्ररथ और मेघरथ नाम के पुत्र होंगे। इन्द्ररथ (रावण का जीव) अनेक उत्तम भव प्राप्त करने के बाद मनुष्य होकर तीर्थंकरनामकर्म का बन्ध करेगा और अनुक्रम से उसे अर्हन्तपद की प्राप्ति होगी। तथा तुम चक्ररथ, चक्रवर्ती की पर्याय में तप कर वैजयन्त स्वर्ग में अहमिन्द्र पद प्राप्त करोगे। वहाँ से च्युत होकर उक्त तीर्थंकर के प्रथम गणधर बनोगे। तदनन्तर तुम्हें निर्वाण की प्राप्ति होगी।" (पद्मपुराण / भा. ३ १२३ / १२१-१३०)। इससे साफ हो जाता है कि आचार्य रविषेण की दृष्टि में आर्यिकापद पुरुषपर्याय की प्राप्ति का साधन है, मोक्ष का नहीं। आर्यिकाधर्म का पालन करने से स्त्रीत्व से छुटकारा पाकर स्वर्ग में देवपद की प्राप्ति होती है और वहाँ से च्युत होने पर मनुष्यपर्याय में पुरुषशरीर उपलब्ध होता है। उसके आश्रय से अशेषपरिग्रहत्याग-रूप जिनलिंग धारण कर स्त्री का जीव परम्परया मुक्त होता है। रविषेण ने स्त्रीमुक्ति का यही मार्ग प्रतिपादित किया है। - पद्मपुराण में किसी भी स्त्री की तद्भवमुक्ति नहीं बतलाई गई है। प्रत्येक आर्यिका का स्वर्ग में देव होना और उसके बाद मनुष्यभव में पुरुष होना ही बतलाया गया है। सीता का उदाहरण ऊपर दिया जा चुका है। राजा रतिवर्धन की रानी सुदर्शना के भवचक्र का वर्णन करते हुए गौतम स्वामी श्रेणिक से कहते हैं- "हे राजन्! पति और पुत्रों के वियोग से पीड़ित सुदर्शना स्त्रीस्वभाव के कारण निदानशृंखला में बद्ध हो दुःखसंकट में भ्रमण करती रही। उसने नाना योनियों में स्त्रीपर्याय के दुःख भोगे और बड़ी मुश्किल से उसे जीतकर पुण्य के प्रभाव से मनुष्यभव में पुरुष हुई और विविध विद्याओं में निपुण होकर धर्मानुराग के कारण सिद्धार्थ नामक क्षुल्लक बनी।" (प.पु./भा.३/१०८/४७-४९)। दशरथ की रानी कैकेयी भी स्त्रीपर्याय को धिक्कारती हुई पृथिवीमती नामक आर्या से आर्यिकादीक्षा ग्रहण कर आनत स्वर्ग में देव होती है। (प.पु./ भा.३/८६ / ७. राजन् सुदर्शना देवी तनयात्यन्तवत्सला। भर्तृपुत्रवियोगात स्त्रीस्वभावानुभावतः॥ १०८/४७॥ निदानशृङ्खलाबद्धा भ्राम्यन्ती दुःखसङ्कटम्। कृच्छं स्त्रीत्वं विनिर्जित्य भुक्त्वा विविधयोनिषु॥ १०८/४८॥ अयं क्रमेण सम्पन्नो मनुष्यः पुण्यचोदितः। सिद्धार्थो धर्मसक्तात्मा विद्याविधिविशारदः॥ १०८/४९॥ पद्मपुराण / भा.३। Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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