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अ०१९/प्र०१
रविषेणकृत पद्मपुराण / ६३९ (अधिकांशतः निर्वस्त्र शरीर, कटि-आच्छादक वस्त्र के अतिरिक्त शेष बाह्य परिग्रह का अभाव, लुंचितमस्तक तथा पिच्छीकमण्डलु-ग्रहणरूप अल्प वेशसाम्य) होने के कारण उसे रविषेण ने गृहस्थमुनि शब्द से भी अभिहित किया है-गृहस्थमुनिवेषभृत् = गृहस्थमुनि अर्थात् क्षुल्लक का वेष धारण करनेवाला (पद्मपुराण/भाग ३/१०२/३/अनुवाद : पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य)। नारद नामक क्षुल्लक को, जिसका दूसरा नाम अवद्वार है, रविषेण ने यह संज्ञा दी है। क्षुल्लक के साथ गृहस्थ विशेषण लगा कर और उसे अणुव्रतधारी (उत्तमाणुव्रतः-प.पु./भा.३/१००/३५) कहकर स्पष्ट कर दिया गया है कि वह साक्षात् मुक्ति का पात्र नहीं है। मुनि शब्द के प्रयोग से उसे अपवादलिंगधारी सवस्त्र यापनीयमुनि न समझ लिया जाय, क्योंकि रविषेण ने उपर्युक्त पद्यों में उसे धर्मवृद्धि का आशीर्वाद देनेवाला (धर्मवृद्धिरिति ब्रुवन्-प.पु./भा.३/१००/३७) कहा है, जो दिगम्बर-परम्परा का लक्षण है। यापनीय-परम्परा में धर्मलाभ का आशीर्वाद दिया जाता था। वस्त्रमात्र परिग्रहधारी मुमुक्षु को रविषेण द्वारा क्षुल्लक संज्ञा दिये जाने से स्पष्ट है कि वे उसे अपवादलिंगधारी मुनि नहीं मानते। यह उनके यापनीय न होने का प्रबल प्रमाण है।
गृहस्थमुक्तिनिषेध आचार्य रविषेण ने गृहस्थ को साक्षात् मुक्ति के योग्य नहीं माना, यह भी उनके
५. जटाकूर्चधरः शुक्लवस्त्रप्रावृतविग्रहः।
अवद्वारगुणाभिख्यो नारदः क्षितिविश्रुतः॥ ८१/११॥ पद्मपुराण / भाग ३। पद्मनाभस्ततोऽवोचत् । सोऽवद्वारगतिर्भवान्। क्षुल्लकोऽभ्यागतः कस्मादुक्तश्च स जगौ क्रमात्॥ ८१/६३॥ पद्मपुराण / भाग ३। दर्शनेऽवस्थितौ वीरौ प्राप ताभ्यां च पूजितः। आसनादिप्रदानेन गृहस्थ-मुनि-वेष-भृत्॥ १०२/३॥ पद्मपुराण / भाग ३। ततः सुखं समासीनः परमं तोषमुद्वहन्।
अब्रवीत्ताववद्वारः कृतस्निग्धनिरीक्षणः॥ १०२/४॥ पद्मपुराण / भाग ३। ६. क-"आद्यास्त्रयोऽपि सङ्घा वन्द्यमाना धर्मवृद्धिं भणन्ति। --- गोप्यास्तु वन्द्यमाना धर्मलाभं
भणन्ति।" तर्करहस्यदीपिकावृत्ति / षड्दर्शनसमुच्चय / अधिकार ४/ पृ.१६१। ख- डॉ० सागरमल जी भी लिखते हैं-"इसी प्रकार पउमचरियं (विमलसूरिकृत) में मुनि
को आशीर्वाद के रूप में धर्मलाभ कहते हुए दिखाया गया है, जब कि दिगम्बर-परम्परा में मुनि आशीर्वचन के रूप में धर्मवृद्धि कहते हैं, किन्तु हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि धर्मलाभ कहने की परम्परा न केवल श्वेताम्बर है, अपितु यापनीय भी है।" जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय/ पृ. २१७-२१८ ।
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