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________________ ६३८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१९/प्र०१ करञ्जजालिकां कक्षे कृत्वा प्रियसखीमिव। मनोज्ञममृतास्वादं धर्मवृद्धिरिति ब्रुवन्॥ १०० । ३७॥ गृहे गृहे शनैर्भिक्षां पर्यटन् विधि सङ्गत:गृहोत्तमं समासीदद्यत्र तिष्ठति जानकी ॥ १०० / ३८ ।। जिनशासनदेवीव सा मनोहर-भावना। दृष्ट्वा क्षुल्लकमुत्तीर्य सम्भ्रान्ता नवमालिकाम्॥ १००/३९ ॥ उपगत्यसमाधाय कर-वारिरुह-द्वयम्। इच्छाकारादिना सम्यक् सम्पूज्य विधिकोविदा॥ १००/४० ॥ विशिष्टेनान्न-पानेन समतर्पयदादरात्।। जिनेन्द्रशासनासक्तान् सा हि पश्यति बान्धवान्॥ १००/४१ ॥ पद्मपुराण / भाग ३। अनुवाद-"तदनन्तर राजा वज्रजंघ के पुण्ययोग से सिद्धार्थ नामक प्रसिद्ध, शुद्धहृदय क्षुल्लक उसके घर आया। महाविद्याओं के द्वारा उसमें इतना पराक्रम आ गया था कि वह तीनों सन्ध्याओं में प्रतिदिन मेरुपर्वत पर विद्यमान जिनप्रतिमाओं की वन्दना कर क्षण भर में अपने स्थान पर आ जाता था। वह प्रशान्त मुख था, धीरवीर था, केशलुंच करने से उसका मस्तक सुशोभित था, उसका चित्त शुद्ध भावनाओं से युक्त था। वह वस्त्रमात्र परिग्रह का धारक था, उत्तम अणुव्रती था, नानागुणरूपी अलंकारों से अलंकृत था, जिनशासन के रहस्य का ज्ञाता था, कलारूपी समुद्र का पारगामी था, धारण किये हुए सफेद चंचल वस्त्र से ऐसा जाना पड़ता था मानो मृणालों के समूह से वेष्टित मन्द-मन्द चलनेवाला गजराज ही हो। वह प्रियसखी के समान पिच्छी को कक्ष में दबाकर अमृत के समान सुस्वादु धर्मवृद्धि शब्द का उच्चारण कर रहा था, और घर-घर में भिक्षा लेता हुआ धीरे-धीरे चल रहा था। इस तरह भ्रमण करता हुआ संयोगवश उस उत्तम घर में पहुँचा, जहाँ सीता बैठी थीं। जिनशासनदेवी के समान मनोहर भावना को धारण करनेवाली सीता ने ज्यों ही क्षुल्लक को देखा, त्यों ही वे संभ्रम के साथ नौखण्डा महल से उतर कर नीचे आ गईं तथा पास जाकर और दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने इच्छाकार आदि के द्वारा उसकी अच्छी तरह पूजा की। तदनन्तर विधि को जाननेवाली सीता ने उसे आदरपूर्वक विशिष्ट अन्न-पान देकर सन्तुष्ट किया, क्योंकि वे जिनशासन-प्रेमियों को अपना बन्धु समझती थीं।" यहाँ द्रष्टव्य है कि वस्त्रमात्रपरिग्रहधारी साधुवत् दिखाई देनेवाले मोक्षसाधक को क्षुल्लक संज्ञा दी गई है और बतलाया गया है कि वह मात्र वस्त्र और पिच्छी ग्रहण करते हुए भी अणुव्रतधारी अर्थात् गृहस्थ ही होता है। मुनि से किंचित् वेशगत साम्य Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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