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________________ अ०१५/प्र०२ मूलाचार / २२७ को मुनि की वन्दना करने के लिए कहा गया है, मुनि को आर्यिका की वन्दना के लिए नहीं। (मूला./पू./गा. १९५) इसी प्रकार मुनि को आर्यिकाओं का आचार्य (दीक्षागुरु) बनने का अधिकारी बतलाया गया है, आर्यिका को मुनियों का आचार्य बनने का नहीं। (मूला./पू./ गा. १८३-१८४)। इससे सिद्ध है कि ग्रन्थकार मुनियों और आर्यिकाओं को एक ही श्रेणी में नहीं रखते, अर्थात् मुनियों के समान आर्यिकाओं को तद्भवमोक्ष के योग्य नहीं मानते। अतः उन्हें ग्रन्थकार के द्वारा एक ही श्रेणी में रखे जाने की धारणा असत्य है। इस प्रकार प्रस्तुत हेतु भी असत्य है। इससे सिद्ध है कि मूलाचार यापनीयग्रन्थ नहीं, अपितु दिगम्बरग्रन्थ है। ३ आर्यिकाओं की परम्परया मुक्ति का कथन यापनीयपक्ष प्रेमी जी-"१९६वीं गाथा में कहा है कि इस प्रकार की चर्या जो मुनि और आर्यिकायें करती हैं, वे जगत्पूजा, कीर्ति और सुख प्राप्त करके 'सिद्ध' होती हैं।" (जै. सा. इ./ द्वि.सं. / पृ.५५२)। तात्पर्य यह कि उस प्रकार की चर्या से आर्यिकाएँ भी स्त्रीशरीर द्वारा मोक्ष प्राप्त कर लेती हैं। दिगम्बरपक्ष मूलाचार (पू०) की वह गाथा इस प्रकार है एवं विधाणचरियं चरितं जे साधवो य अज्जाओ। ते जगपुजं कित्तिं सुहं च लभ्रूण सिझंति॥ १९६॥ अनुवाद-"जो साधु और आर्यिकाएँ इस प्रकार की चर्या का आचरण करती हैं, वे लोक में सम्मान, कीर्ति और सुख को प्राप्त कर सिद्ध हो जाती हैं।" । इस प्रकार की चर्या से तात्पर्य है १९६वीं गाथा के पूर्व तक मुनियों और आर्यिकाओं के लिए बतलाया गया आचार, जिसमें अट्ठाईस मूलगुणों, उत्तरगुणों एवं सामाचार आदि का समावेश है। इस गाथा में लखूण क्रिया का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ है प्राप्त करके या प्राप्त करने के बाद। इससे सूचित होता है कि बतलाये गये आचार के पालन से जो पुण्यानुबन्धी पुण्य का बन्ध होता है, उसके उदय से मुनि और आर्यिका पहले सौधर्मादि स्वर्गों में देव होकर वहाँ के सुख भोगते हैं, फिर वहाँ से च्युत होने पर चक्रवर्त्यादि के. पद प्राप्त कर जगत् में सम्मान और कीर्ति अर्जित करते हैं, पश्चात् Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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