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२२८ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१५/प्र०२ मुनिदीक्षा ग्रहण कर मुक्त होते हैं। इस प्रकार इस गाथा में मुनि और आर्यिका दोनों के परम्परया (आर्यिका के पुरुषपर्याय प्राप्त करने के बाद) सिद्ध होने का कथन किया गया है, साक्षात् (तद्भव से) सिद्ध होने का नहीं।
इस प्रकार के भाव को व्यक्त करनेवाला एक पद्य रत्नकरण्डश्रावकाचार में भी आया है
देवेन्द्र-चक्र-महिमानममेय-मानम् राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्रशिरोऽर्चनीयम्। धर्मेन्द्र-चक्रमधरीकृत-सर्वलोकम्
लब्ब्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्यः॥ १/४१॥ अनुवाद-"जो सम्यग्दृष्टि पुरुष जिनेन्द्र का भक्त (जिने भक्तिर्यस्य सः) होता है, वह अपरिमित सम्मान या ज्ञान से सहित इन्द्रों की महिमा को, मुकुटबद्ध राजाओं के मस्तकों से पूजनीय, चक्रवर्ती के चक्ररत्न को और समस्तलोक के ऊपर विराजमान तीर्थंकर के धर्मचक्र को उपलब्ध कर मोक्ष प्राप्त करता है।"
यहाँ भी लब्ध्वा (उपलब्धकर) इस पूर्वकालिक क्रिया के प्रयोग द्वारा स्पष्ट किया गया है कि जिनभक्त सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रादि की लौकिक विभूतियों को प्राप्त करने के बाद मुक्त होता है। इन्द्रादि की विभूति और मोक्ष दोनों एक ही भव में प्राप्त नहीं किये जा सकते। अतः स्पष्ट है कि इन दोनों का क्रमशः अलग-अलग भवों में प्राप्त करने की बात कही गई है। इसी प्रकार मूलाचार की पूर्वोक्त गाथा में भी साधु और आर्यिका दोनों को अलग-अलग भवों (आर्यिका को देवगति और मानवपुरुषपर्याय) में ही स्वर्गिक सुख, लोकपूज्यपद और मोक्ष इन पृथक्-पृथक् वस्तुओं के प्राप्त होने की बात कही गई है।
___ इस अभिप्राय की पुष्टि इस प्रमाण से होती है कि मूलाचार के कर्ता ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि स्त्रियाँ अपने उत्कृष्ट धर्माचरण के द्वारा भी अच्युत (सोलहवें) स्वर्ग से ऊपर नहीं जा सकतीं। (गा. ११७६)। उससे ऊपर केवल निर्ग्रन्थलिंगी ही जा सकते हैं। (गा. ११७७-७८)। तथा रत्नत्रयधारी निर्ग्रन्थ मुनि ही मोक्ष प्राप्त करते हैं। (गा. ११८७)। इसके प्रमाण पूर्व में दिये जा चुके हैं। मूलाचार में जो सवस्त्रमुक्ति का निषेध किया गया है, वह स्त्रीमुक्ति निषेध का प्रबल प्रमाण है।
इस प्रकार मूलाचार में आर्यिकाओं के लिए मुनिवत् चर्या का विधान स्त्रीपर्याय में किया गया है, यह मान्यता भी असत्य है। अर्थात् प्रस्तुत हेतु भी असत्य है, इसलिए सिद्ध है कि मूलाचार यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ नहीं है।
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