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________________ अ० १५ / प्र० २ ४ आर्यिका का मुनिसंघ में समावेश मुनितुल्य होने का प्रमाण नहीं यापनीयपक्ष प्रेमी जी - " १८४वीं गाथा में कहा गया है कि आर्यिकाओं का गणधर गम्भीर, दुर्धर्ष, अल्पकौतूहल, चिरप्रव्रजित और गृहीतार्थ होना चाहिए। इससे जान पड़ता है कि आर्यिकाएँ मुनिसंघ के ही अन्तर्गत हैं और उनका गणधर मुनि ही होता है । 'गणधरो मर्यादोपदेशकः प्रतिक्रमणाद्याचार्यः ' - टीका।" (जै. सा. इ. / द्वि. सं. / पृ. ५५२) । दिगम्बरपक्ष मूलाचार / २२९ यदि कोई मुनि आर्यिकाओं का गणधर होता है या आर्यिकाएँ मुनिसंघ के अन्तर्गत होती हैं, तो इससे स्त्री का तद्भवमोक्ष होना सिद्ध नहीं होता । मुनिसंघ अर्थात् श्रमणसंघ के दो अर्थ हैं। पहला है : ऋषि (ऋद्धिप्राप्त मुनि), मुनि ( अवधि, मन:पर्यय एवं केवलज्ञान के धारी मुनि), यति ( उपशम - क्षपक श्रेणी - आरूढ़मुनि) और अनगार (सामान्य साधु), इन चार वर्णों (श्रेणियों) के मुनियों का संघ, जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है—“चादुव्वण्णस्स समणसंघस्स" (प्र.सा./गा. ३ / ४९ ) । इसका अर्थ तात्पर्यवृत्तिकार आचार्य जयसेन ने निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया है : है " - - - चातुर्वर्णस्य श्रमणसङ्घस्य । अत्र श्रमणशब्देन श्रमण - शब्दवाच्या ऋषिमुनियत्यनगारा ग्राह्याः ।" अर्थात् चातुर्वर्णश्रमणसंघ में 'श्रमण' शब्द ऋषि, मुनि, ि और अनगार, इन चार प्रकार के मुनियों का वाचक है। श्रमणसंघ का दूसरा अर्थ श्रमणधर्म के अनुकूल चलनेवाले श्रावक, श्राविका, मुनि और आर्यिका इन चार का संघ । यह अर्थ आचार्य जयसेन ने प्रवचनसार की उपर्युक्त गाथा (३/४९ / पृ. ३१३) की तात्पर्यवृत्ति में इन शब्दों में प्रतिपादित किया है - " अथवा श्रमणधर्मानुकूलश्रावकादि-चातुर्वर्णसङ्घः ।" इस प्रकार जहाँ चातुर्वर्ण- श्रमणसंघ में आर्यिकाओं का भी समावेश माना जाता है, वहाँ श्रावक-श्राविकाओं का भी समावेश मान्य है । अतः जैसे मुनिसंघ के अन्तर्गत होने से श्रावक-श्राविकाएँ मुनितुल्य नहीं होतीं, वैसे ही आर्यिकाएँ भी मुनितुल्य नहीं होतीं। मूलाचार में स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया है, इसके प्रमाण पूर्व में प्रस्तुत किये जा चुके हैं। इससे सिद्ध है कि श्रमणसंघ में आर्यिकाओं का समावेश करते हुए भी मूलाचार में आर्यिका को मुनितुल्य अर्थात् तद्भवमोक्षगामी स्वीकार नहीं किया गया है । अतः मूलाचार को यापनीयग्रन्थ सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत किया गया उपर्युक्त हेतु भी असत्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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