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अ०१८ / प्र०१
सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ४७१ है और न कोई ऐसा स्पष्ट प्रमाण अथवा युक्तिवाद ही सामने लाया गया है, जिनसे उन सब ग्रंथों को एक ही सिद्धसेनकृत माना जा सके। और इसलिये अधिकांश में कल्पनाओं तथा कुछ भ्रान्त धारणाओं के आधार पर ही विद्वान् लोग उक्त बातों के निर्णय तथा प्रतिपादन में प्रवृत्त होते रहे हैं, इसी से कोई भी ठीक निर्णय अभी तक नहीं हो पाया। वे विवादापन्न ही चली जाती हैं और सिद्धसेन के विषय में जो भी परिचय-लेख लिखे गये हैं, वे सब प्रायः खिचड़ी बने हुए हैं और कितनी ही गलतफहमियों को जन्म दे रहे तथा प्रचार में ला रहे हैं। अतः इस विषय में गहरे अनुसन्धान के साथ गंभीर विचार की जरूरत है और उसी का यहाँ पर प्रयत्न किया जाता है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता./ पृ. १२६)।
"दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में सिद्धसेन के नाम पर जो ग्रंथ चढ़े हुए हैं, उनमें से कितने ही ग्रंथ तो ऐसे हैं, जो निश्चितरूप में दूसरे उत्तरवर्ती सिद्धसेनों की कृतियाँ हैं, जैसे १.जीतकल्पचूर्णि, २.तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की टीका, ३.प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति, ४. एकविंशतिस्थानप्रकरण (प्रा.) और ५.सिद्धिश्रेयसमुदय (शक्रस्तव) नाम का मंत्रगर्भित गद्यस्तोत्र। कुछ ग्रंथ ऐसे हैं, जिनका सिद्धसेन नाम के साथ उल्लेख तो मिलता है, परन्तु आज वे उपलब्ध नहीं हैं, जैसे १.बृहत्-षड्दर्शनसमुच्चय (जैन-ग्रंथावली, पृ. ९४), २.विषोग्रग्रहशमनविधि, जिसका उल्लेख उग्रादित्याचार्य (विक्रम ९वीं शताब्दी) के कल्याणकारक वैद्यकग्रंथ (२०-८५) में पाया जाता है और ३.नीतिसार-पुराण, जिसका उल्लेख केशवसेनसूरि (वि० सं० १६८८) कृत कर्णामृतपुराण के निम्न पद्यों में पाया जाता है और जिनमें उसकी श्लोकसंख्या भी १५६३०० दी हुई है
सिद्धोक्त-नीतिसारादिपुराणोद्भूत-सन्मतिम्। विधास्यामि प्रसन्नार्थं ग्रन्थं सन्दर्भगर्भितम्॥ १९॥ खंखाग्निरसवाणेन्दु (१५६३००) श्लोकसंख्या प्रसूत्रिता। नीतिसारपुराणस्य
सिद्धसेनादिसूरिभिः॥ २०॥ उपलब्ध न होने के कारण ये तीनों ग्रन्थ विचार में कोई सहायक नहीं हो
२. हो सकता है कि यह ग्रन्थ हरिभद्रसूरि का 'षड्दर्शनसमुच्चय' ही हो और किसी गलती
से सूरत के उन सेठ भगवानदास कल्याणदास की प्राइवेट रिपोर्ट में, जो पिटर्सन साहब की नौकरी में थे, दर्ज हो गया हो, जिस पर से जैनग्रन्थावली में लिया गया है। क्योंकि इसके साथ में जिस टीका का उल्लेख है, उसे 'गुणरत्न' की लिखा है और
हरिभद्र के षड्दर्शनसमुच्चय पर भी गुणरत्न की टीका है। ३. "शालाक्यं पूज्यपाद-प्रकटितमधिकं शल्यतंत्रं च पात्रस्वामि-प्रोक्तं विषोग्रग्रहशमनविधिः
सिद्धसेनैः, प्रसिद्धैः।"
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