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________________ ४७२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८/प्र०१ सकते। इन आठ ग्रन्थों के अलावा चार ग्रन्थ और हैं-१. द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका, २. प्रस्तुत सन्मतिसूत्र, ३. न्यायावतार और ४. कल्याणमन्दिर।" (पु.जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ. १२६-१२७)। कल्याणमन्दिरस्तोत्र-वर्णित पार्श्वनाथ-उपसर्ग श्वेताम्बरमत-विरुद्ध "कल्याणमन्दिर नाम का स्तोत्र ऐसा है, जिसे श्वेताम्बरसम्प्रदाय में सिद्धसेन दिवाकर की कृति समझा और माना जाता है, जब कि दिगम्बरपरम्परा में वह स्तोत्र के अन्तिम पद्य में सूचित किये हुए कुमुदचन्द्र नाम के अनुसार कुमुदचन्द्राचार्य की कृति माना जाता है। इस विषय में श्वेताम्बर-सम्प्रदाय का यह कहना है कि "सिद्धसेन का नाम दीक्षा के समय कुमुदचन्द्र रक्खा गया था, आचार्यपद के समय उनका पुराना नाम ही उन्हें दे दिया गया था, ऐसा प्रभाचन्द्रसूरि के प्रभावकचरित (सं० १३३४) से जाना जाता है और इसलिये कल्याणमन्दिर में प्रयुक्त हुआ कुमुदचन्द्र नाम सिद्धसेन का ही नामान्तर है।" दिगम्बर समाज इसे पीछे की कल्पना और एक दिगम्बरकृति को हथियाने की योजनामात्र समझता है, क्योंकि प्रभावकचरित से पहले सिद्धसेनविषयक जो दो प्रबन्ध लिखे गये हैं, उनमें कुमुदचन्द्र नाम का कोई उल्लेख नहीं है, पं० सुखलाल जी और पं० बेचरदास जी ने अपनी प्रस्तावना में भी इस बात को व्यक्त किया है। बाद के बने हुए मेरुतुङ्गाचार्य के प्रबन्धचिन्तामणि (सं० १३६१) में और जिनप्रभसूरि के विविधतीर्थकल्प (सं०१३८९) में भी उसे अपनाया नहीं गया है। राजशेखर के प्रबन्धकोश अपरनाम चतुर्विंशतिप्रबन्ध (सं०१४०५) में कुमुदचंद्र नाम को अपनाया जरूर गया है, परन्तु प्रभावकचरित के विरुद्ध कल्याणमन्दिरस्तोत्र को पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका के रूप में व्यक्त किया है और साथ ही यह भी लिखा है कि वीर की द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका-स्तुति से जब कोई चमत्कार देखने में नहीं आया, तब यह पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका रची गई है, जिसके ११वें से नहीं, किन्तु प्रथम पद्य से ही चमत्कार का प्रारम्भ हो गया। ऐसी स्थिति में पार्श्वनाथद्वात्रिंशिका के रूप में जो कल्याणमन्दिरस्तोत्र रचा गया वह ३२ पद्यों का कोई दूसरा ही होना चाहिये, न कि वर्तमान कल्याणमन्दिरस्तोत्र, जिसकी रचना ४४ पद्यों में हुई है और इससे दोनों कुमुदचन्द्र भी भिन्न होने चाहिये। इसके सिवाय, वर्तमान कल्याणमन्दिरस्तोत्र में 'प्राग्भारसंभृतनभांसि रजांसि रोषात्' (३१) इत्यादि तीन पद्य ऐसे हैं, जो पार्श्वनाथ को दैत्यकृत उपसर्ग से युक्त प्रकट करते हैं, जो दिगम्बर मान्यता के अनुकूल और ४. "इत्यादिश्रीवीरद्वात्रिंशद्वात्रिंशिका कृता। परं तस्मात्तादृक्षं चमत्कारमनालोक्य पश्चात् श्रीपार्श्वनाथद्वात्रिंशिकामभिकर्तुं कल्याणमन्दिरस्तवं चक्रे प्रथमश्लोके एव प्रासादस्थात् शिखिशिखाग्रादिव लिङ्गाद् धूमवर्तिरुदतिष्ठत्।" पाटन की हेमचन्द्राचार्य-ग्रन्थावली में प्रकाशित प्रबन्धकोश। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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