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________________ ५२२ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० १ के शब्दों (प्र./ पृ.१०३) में 'जिन द्वात्रिंशिकाओं का स्थान सिद्धसेन के ग्रन्थों में चढ़ता हुआ है' उन्हीं के द्वारा सिद्धसेन को प्रतिष्ठितयश बतलाना चाहिये था, परन्तु हरिभद्रसूरि ने वैसा न करके सन्मति के द्वारा सिद्धसेन का प्रतिष्ठितयश होना प्रतिपादित किया है और इससे यह साफ ध्वनि निकलती है कि 'सन्मति' के द्वारा प्रतिष्ठितयश होनेवाले सिद्धसेन उन सिद्धसेन से प्रायः भिन्न हैं, जो द्वात्रिंशिकाओं को रचकर यशस्वी हुए हैं।" (पु. जै. वा. सू. / प्रस्ता. / पृ. १६१ - १६२) । ८.४. रविषेण के पद्मचरित में 'दिवाकरयति' का उल्लेख " हरिभद्रसूरि के कथनानुसार जब सन्मति के कर्ता सिद्धसेन दिवाकर की आख्या को प्राप्त थे, तब वे प्राचीनसाहित्य में सिद्धसेन नाम के बिना 'दिवाकर' नाम से भी उल्लेखित होने चाहिये, उसी प्रकार जिस प्रकार कि समन्तभद्र स्वामी नाम उल्लेखित मिलते हैं । ६६ खोज करने पर श्वेताम्बरसाहित्य में इसका एक उदाहरण 'अजरक्खनंदिसेणो' नाम की उस गाथा में मिलता है, जिसे मुनि पुण्यविजय जी ने अपने 'छेदसूत्रकार और नियुक्तिकार' नामक लेख में 'पावयणी धम्मकहा' नाम की गाथा के साथ उद्धृत किया है और जिसमें आठ प्रभावक आचार्यों की नामावली देते हुए दिवायरो पद के द्वारा सिद्धसेनदिवाकर का नाम भी सूचित किया गया है। ये दोनों गाथाएँ पिछले समयादि- सम्बन्धी प्रकरण के एक फुटनोट में ( देखिए, पा. टि. २८) उक्त लेख की चर्चा करते हुए उद्धृत की जा चुकी हैं। दिगम्बरसाहित्य में दिवाकर का यतिरूप से एक उल्लेख रविषेणाचार्य के पद्मचरित की प्रशस्ति के निम्न वाक्य पाया जाता है, जिसमें उन्हें इन्द्र-गुरु का शिष्य, अर्हन्मुनिका गुरु और रविषेण के गुरु लक्ष्मणसेन का दादागुरु प्रकट किया है आसीदिन्द्रगुरोर्दिवाकरयतिः शिष्योऽस्य चार्हन्मुनिः । तस्माल्लक्ष्मणसेनसन्मुनिरदः शिष्यो रविस्तु स्मृतम् ॥ १२३ / १६७॥ " इस पद्यमें उल्लिखित दिवाकरयति का सिद्धसेनदिवाकर होना दो कारणों से अधिक सम्भव जान पड़ता है, एक तो समय की दृष्टि से और दूसरे गुरु-नाम की दृष्टि से । पद्मचरित वीरनिर्वाण से १२०३ वर्ष, ६ महीने बीतने पर अर्थात् विक्रमसंवत् ७३४ में बनकर समाप्त हुआ है, ६७ इससे रविषेण के पड़दादा (गुरु के दादा ) गुरु का समय लगभग एक शताब्दी पूर्व का अर्थात् विक्रम की ७वीं शताब्दी के द्वितीय चरण (६२६-६५०) के भीतर आता है, जो सन्मतिकार सिद्धसेन के लिये ऊपर निश्चित ६६. देखिये, मणिकचन्द्र-ग्रन्थमाला में प्रकाशित रत्नकरण्ड श्रावकाचार की प्रस्तावना / पृ. ८ । ६७. द्विशताभ्यधिके समासहस्त्रे · समतीतेऽर्द्धचतुष्कवर्षयुक्ते । जिनभास्कर-वर्द्धमान-सिद्धे चरितं पद्ममुनेरिदं निबद्धम् ॥ १२३ / १८१ ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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