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________________ अ०१८ / प्र० १ सन्मतिसूत्रकार सिद्धसेन : दिगम्बराचार्य / ५२१ प्रसन्न होवें, जिनके विविध निबन्धों पर बार-बार विचार करके मेरे जैसा अल्प-प्रतिभा का धारक भी प्रस्तुत शास्त्र के रचने में प्रवृत्त होता है । " घ- क्व सिद्धसेन - स्तुतयो अशिक्षितालापकला तथाऽपि यूथाधिपतेः स्खलद्गतिस्तस्य शिशुर्न " यह विक्रम की १२वीं - १३वीं शताब्दी के विद्वान् आचार्य हेमचन्द्र की एक द्वात्रिंशिकास्तुति का पद्य है। इसमें हेमचन्द्रसूरि सिद्धसेन के प्रति अपनी श्रद्धाञ्जलि अपर्ण करते हुए लिखते हैं कि "कहाँ तो सिद्धसेन की महान् अर्थवाली गम्भीर स्तुतियाँ और कहाँ अशिक्षित मनुष्यों के आलाप जैसी मेरी यह रचना ? फिर भी यूथ के अधि गजराज के पथ पर चलता हुआ उसका बच्चा ( जिस प्रकार ) स्खलितगति होता हुआ भी शोचनीय नहीं होता, उसी प्रकार मैं भी अपने यूथाधिपति आचार्य के पथ का अनुसरण करता हुआ स्खलितगति होने पर शोचनीय नहीं हूँ ।" क्व Jain Education International महार्था चैषा । "यहाँ स्तुतयः, यूथाधिपतेः और तस्य शिशुः ये पद खासतौर से ध्यान देने योग्य हैं । 'स्तुतयः' पद के द्वारा सिद्धसेनीय ग्रन्थों के रूप में उन द्वात्रिंशिकाओं की सूचना की गई है, जो स्तुत्यात्मक हैं और शेष पदों के द्वारा सिद्धसेन को अपने सम्प्रदाय का प्रमुख आचार्य और अपने को उनका परम्परा शिष्य घोषित किया गया है। इस तरह श्वेताम्बरसम्प्रदाय के आचार्यरूप में यहाँ वे सिद्धसेन विवक्षित हैं, जो कतिपय स्तुतिरूप द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता हैं, न कि वे सिद्धसेन, जो कि स्तुत्येतर द्वात्रिंशिकाओं के अथवा खासकर सन्मतिसूत्र के रचयिता हैं। श्वेताम्बरीय प्रबन्धों में भी, जिनका कितना ही परिचय ऊपर आ चुका है, उन्हीं सिद्धसेन का उल्लेख मिलता है, जो प्राय: द्वात्रिंशिकाओं अथवा द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका - स्तुतियों के कर्तारूप में विवक्षित हैं । सन्मतिसूत्र का उन प्रबन्धों में कहीं कोई उल्लेख ही नहीं है।" (पु.जै.वा.सू./ प्रस्ता. / पृ. १६० - १६१)। ८.३. नामसाम्य के कारण 'दिवाकर' उपनाम अन्य सिद्धसेनों के भी साथ जुड़ गया For Personal & Private Use Only पथस्थः शोच्यः ॥ "ऐसी स्थिति में सन्मतिकार सिद्धसेन के लिये जिस दिवाकर विशेषण का हरिभद्रसूरि ने स्पष्टरूप से उल्लेख किया है, वह बाद को नाम - साम्यादि के कारण द्वात्रिंशिकाओं के कर्ता सिद्धसेन एवं न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन के साथ भी जुड़ गया मालूम होता है और संभवतः इस विशेषण के जुड़ जाने के कारण ही तीनों सिद्धसेन एक ही समझ लिये गये जान पड़ते हैं । अन्यथा, पं० सुखलाल जी आदि www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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