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________________ ५२० / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१८ / प्र० १ का नाम उज्जयिनी की लिङ्गस्फोटन - सम्बन्धी घटना के साथ उल्लिखित है ।" ६५ (पु. जै.वा.सू./प्रस्ता./पृ.१५९-१६०)। " इस तरह श्वे. पट्टावलियों - गुर्वावलियों में सिद्धसेन का दिवाकररूप में उल्लेख विक्रम की १५वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से पाया जाता है, कतिपय प्रबन्धों में उनके इस विशेषण का प्रयोग सौ-दो सौ वर्ष और पहले से हुआ जान पड़ता है। रही स्मरणों की बात, उनकी भी प्राय: ऐसी ही हालत है, कुछ स्मरण दिवाकर - विशेषण को साथ में लिये हुए हैं और कुछ नहीं (लिये हुए) हैं। श्वेताम्बरसाहित्य से सिद्धसेन के श्रद्धांजलिरूप जो भी स्मरण अभी तक प्रकाश में आये हैं, वे प्राय: इस प्रकार हैं क उदितोऽर्हन्त - व्योम्नि सिद्धसेनदिवाकरः । चित्रं गोभिः क्षितौ जहे कविराज-बुध-प्रभा ॥ 44 44 'यह विक्रम की १३वीं शताब्दी (वि० सं० १२५२) के ग्रन्थ अममचरित्र का पद्य है। इसमें रत्नसूरि अलंकारभाषा को अपनाते हुए कहते हैं कि अर्हन्मतरूपी आकाश में सिद्धसेन दिवाकर का उदय हुआ है, आश्चर्य है कि उसकी वचनरूपकिरणों से पृथ्वी पर कविराज की ( वृहस्पतिरूप 'शेष' कवि की) और बुध की (बुधग्रहरूप विद्वद्वर्ग) की प्रभा लज्जित हो गई (फीकी पड़ गई ) है।" ख तमः स्तोमं स हन्तुं श्रीसिद्धसेनदिवाकरः । यस्योदये स्थितं मूकैरुलूकैरिव वादिभिः ॥ " यह विक्रमकी १४वीं शताब्दी (सं० है, जिसमें प्रद्युम्नसूरि ने लिखा है कि "वे १३२४) के ग्रन्थ समरादित्य का वाक्य श्री सिद्धसेन दिवाकर ( अज्ञान) अंधकार के समूह को नाश करें, जिनके उदय होने पर वादीजन उल्लुओं की तरह मूक हो रहे थे, उन्हें कुछ बोल नहीं आता था।" ग - Jain Education International प्रसिद्धा भवन्तु कृतप्रसादाः । येषां विमृश्य सततं विविधान्निबन्धान् शास्त्रं चिकीर्षति तनुप्रतिभोऽपि मादृक् ॥ श्रीसिद्धसेन - हरिभद्रमुखाः सूरयो मि " यह स्याद्वादरत्नाकर का पद्य है। इसमें १२वीं - १३वीं शताब्दी के विद्वान् वादिदेवसूरि लिखते हैं कि " श्रीसिद्धसेन और हरिभद्र जैसे प्रसिद्ध आचार्य मेरे ऊपर 44 ६५. 'तथा श्रीसिद्धसेनदिवाकरेणोज्जयिनीनगर्यां महाकालप्रासादे लिंगस्फोटनं विधाय स्तुत्या ११ काव्ये श्रीपार्श्वनाथबिम्बं प्रकृटीकृतं, कल्याणमन्दिरस्तोत्रं कृतं ।" पट्टावलीसमुच्चय / पृ. १६६ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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