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२५४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३
अ०१६ / प्र०१ ३. भाष्य में स्त्री के सिद्ध होने एवं तीर्थंकरी होने का उल्लेख भी श्वेताम्बरमान्यता का प्रतिपादन है।
४. 'कालश्चेत्येके' (काल किन्हीं के मत से वास्तविक द्रव्य है) सूत्र और उसका भाष्य भी दिगम्बरमान्यता के प्रतिकूल और श्वेताम्बरमान्यता के अनुकूल है।
५. तत्त्वार्थसूत्र में बारह कल्पों की मान्यता ग्रन्थ के श्वेताम्बर होने की समर्थक
६. भाष्य (१/३१) में केवलज्ञान के पश्चात् केवली के दूसरा उपयोग मानने, न मानने का जो मन्तव्यभेद है वह दिगम्बर ग्रन्थों में नहीं दिखाई देता, जिससे ग्रन्थकार श्वेताम्बर सिद्ध होते हैं।
७. मुनियों के पुलाक, बकुश आदि भेद दिगम्बरमत के अनुकूल. नहीं हैं। ८. भाष्य की प्रशस्ति में उल्लिखित उच्चनागर शाखा श्वेताम्बर-पट्टावली में मिलती
९. किसी भी श्वेताम्बर-आचार्य ने भाष्य को उमास्वाति की कृति के रूप में अमान्य नहीं किया।
१०. प्रशमरतिप्रकरण ग्रन्थ भी उमास्वाति की निर्विवाद कृति है। उसमें मुनि के लिए वस्त्रपात्र की व्यवस्था का निरूपण है। इससे भी उमास्वाति श्वेताम्बर सिद्ध होते हैं।
११. उमास्वाति के वाचकवंश का उल्लेख और उसी वंश में होनेवाले अन्य आचार्यों का वर्णन श्वेताम्बर-पट्टावलियों, पन्नवणा और नन्दी की स्थविरावली में मिलता है।
ख हेतुओं की असत्यता और हेत्वाभासता इनमें से अनेक हेतुओं का तो अस्तित्व ही नहीं है और अनेक हेत्वाभास हैं। अतः ऐसा एक भी हेतु विद्यमान नहीं है, जिससे यह सिद्ध हो कि तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बरग्रन्थ नहीं, अपितु श्वेताम्बरग्रन्थ है। इससे तय है कि वह श्वेताम्बरग्रन्थ नहीं, बल्कि दिगम्बरग्रन्थ ही है। उपर्युक्त हेतुओं की असत्यता एवं हेत्वाभासता का सप्रमाण प्रदर्शन आगे किया जा रहा है। इनमें प्रमुख हेतु है तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्य (तत्त्वार्थाधिगमभाष्य) को एक ही व्यक्ति आचार्य उमास्वाति के द्वारा रचित मानना।
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