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________________ षोडश अध्याय तत्त्वार्थसूत्र प्रथम प्रकरण तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बरग्रन्थ न होने के प्रमाण दिगम्बरग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र को पं० सुखलाल जी संघवी आदि श्वेताम्बर विद्वानों ने श्वेताम्बरग्रन्थ सिद्ध करने का प्रयत्न किया है तथा पं० नाथूराम जी प्रेमी एवं प्रो० ए० एन० उपाध्ये ने उसे यापनीयपरम्परा का ग्रन्थ माना है। किन्तु डॉ० सागरमल जी तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता को, न तो दिगम्बर मानते हैं, न श्वेताम्बर , न यापनीय। वे उन्हें उस स्वबुद्धिकल्पित उत्तरभारतीय-सचेलाचेल-निर्ग्रन्थ-परम्परा का मानते हैं, जिससे उनके अनुसार, श्वेताम्बर और यापनीय सम्प्रदायों का जन्म हुआ था। यहाँ हम उन हेतुओं पर दृष्टिपात करते हैं, जिनके आधार पर पं० सुखलाल जी ने दावा किया है कि तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बरपरम्परा का ग्रन्थ है। क श्वेताम्बरग्रन्थ होने के पक्ष में प्रस्तुत हेतु पं० सुखलाल जी संघवी ने 'तत्त्वार्थसूत्र' (विवेचन-सहित) की प्रस्तावना (पृ. १५-१८) में तत्त्वार्थसूत्र को श्वेताम्बरग्रन्थ सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित हेतु प्रस्तुत किये हैं १. तत्त्वार्थसूत्र और उस पर लिखे गये तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, दोनों के कर्ता उमास्वाति हैं। चूँकि भाष्य में मुनियों के लिए वस्त्रपात्रादि को संयम का साधन बतलाया गया है, इससे सिद्ध होता है कि सूत्रकार उमास्वाति श्वेताम्बराचार्य थे। २. सूत्र और भाष्य दोनों में कहा गया है कि केवली को क्षुधा, तृषा आदि ग्यारह परीषह होते हैं। इससे सिद्ध होता है कि केवली कवलाहार ग्रहण करते हैं। यह श्वेताम्बरमान्यता है और दिगम्बरमत के विरुद्ध है। १. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय / पृ. २३९-२४०। २. प्रकाशक : पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी/ सन् १९९३ ई.। Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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