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________________ ३३४ / जैनपरम्परा और यापनीयसंघ / खण्ड ३ अ०१६/प्र०१ से वे भाष्यकार से भिन्न सिद्ध होंगे। फलस्वरूप उन्होंने तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति में स्पष्ट किया है कि यहाँ ग्रन्थकार ने अपने को सूत्रकार और भाष्यकार के रूप में विभाजित कर सूत्रकार के साथ अन्यपुरुष-एकवचनात्मक शास्ति' क्रिया का प्रयोग किया है-"शास्तीति च ग्रन्थकार एव द्विधात्मानं विभज्य सूत्रकार-भाष्यकाराकारेणैवमाह शास्तीति, सूत्रकार इति शेषः।" (तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति १/११ / पृ. ७२)। - यह ठीक है कि जो ग्रन्थकार स्वयं ही अपने ग्रन्थ की टीका रचता है वह स्वयं को ग्रन्थकार और टीकाकार के रूप में विभक्त कर अपने ग्रन्थकाररूप के साथ अन्यपुरुष की क्रिया प्रयुक्त करता है। उदाहरणार्थ, पं० आशाधर जी ने स्वरचित अनगारधर्मामृत की दो टीकाएँ स्वयं लिखी हैं और अपने ग्रन्थकाररूप के साथ अन्यपुरुष की क्रिया का प्रयोग किया है। जैसे ग्रन्थ के आदि में अरहन्त, सिद्ध, गणधर आदि का स्तवन करने के पश्चात् वे कहते हैं-"अधुना जिनागमव्याख्यातॄनारातीयसूरीनभिष्टौति" (ज्ञानदीपिका टीका १/४/ पृ. १०)। अर्थात् "ग्रन्थकार अब जिनागम के व्याख्याता आरातीय आचार्यों की स्तुति करते हैं।" और इसके बाद वे 'ग्रन्थार्थतो गुरुपरम्परया' इत्यादि श्लोक (१/४/पृ. १०) प्रस्तुत करते हैं, जिसमें उक्त आचार्यों की स्तुति की गयी है। यहाँ पण्डित जी के ग्रन्थकाररूप के साथ प्रयुक्त अभिष्टौति क्रिया अन्यपुरुष-एकवचनात्मक है। इससे यह भ्रम हो सकता है कि ग्रन्थकार और टीकाकार भिन्न व्यक्ति हैं। तथापि उन्हें अभिन्न कह देने मात्र से वे अभिन्न सिद्ध नहीं होते, इसे प्रमाण से पुष्ट करना आवश्यक है। सिद्धसेनगणी ने प्रमाण से पुष्ट किये बिना ही तत्त्वार्थसूत्रकार और उसके भाष्यकार को अभिन्न कह दिया है, जो निरर्थक है। जिन ग्रन्थकार और टीकाकार का एकत्व विवादास्पद है, उनके एकत्व का निर्णय मूलग्रन्थ और उसकी टीका में व्यक्त सिद्धान्तों की एकता और दोनों की प्ररूपणशैली में पायी जानेवाली संगति से ही हो सकता है। ये एकता और संगति अनगारधर्मामृत और उसकी टीका में उपलब्ध हैं, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके श्वेताम्बरीयभाष्य में उपलब्ध नहीं हैं, इसके विपरीत उनमें सैद्धान्तिक विरोध एवं प्ररूपणविसंगति की उपलब्धि होती है, जिनके प्रमाण पूर्व में दिये जा चुके हैं। उनसे सिद्ध है कि तत्त्वार्थसूत्रकार और भाष्यकार अलग-अलग व्यक्ति हैं, एक नहीं। अस्तु, शास्ति क्रिया का प्रयोग इस बात का उदाहरण है कि तत्त्वार्थाधिगमभाष्य में भी सूत्रकार के साथ अन्यपुरुष की क्रिया प्रयुक्त हुई है। ३. इसी प्रकार "आद्यशब्दौ द्वित्रिभेदौ" (त.सू./श्वे/१/३५) इस सूत्र के भाष्य (पृ.६१) में कहा गया है-"आद्य इति सूत्रक्रमप्रामाण्यान्नैगममाह।" अर्थात् "नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः" (त.सू/श्वे/१/३४) इस सूत्र में नयों का जो क्रम बतलाया गया है, उसके अनुसार सूत्रकार आद्य शब्द से नैगमनय का कथन करते Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004044
Book TitleJain Parampara aur Yapaniya Sangh Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2009
Total Pages906
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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